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________________ [१५] यावज्जीवन अनुल्लंघनीय रहती है, जैसे नीचे तक अच्छी तरह गड़ा हुआ इंद्रकील अचल और दृढ़ होता है । जो भिक्षु ब्रह्मचर्य को पूरा कर, कृतकृत्य, भारमुक्त, परमार्थ- प्राप्त, सांसारिक बंधनों से मुक्त, क्षीणाश्रव, अरहंत हो जाते हैं वे नौ बातों के अयोग्य हो जाते हैं - १. जान बूझ कर जीव - हिंसा करना; २. चोरी करना; ३. मैथुन सेवन; ४. जान बूझ कर झूठ बोलना; ५. गृहस्थ - काल के सांसारिक भोगों को जोड़ना - बटोरना; ६. राग का मार्ग अपनाना; ७. द्वेष का मार्ग अपनाना; ८. मोह का मार्ग अपनाना; ९. भय का मार्ग अपनाना । तथागत अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न धर्मों के विषय में कालोचित वक्ता, सत्य - वक्ता, अर्थवादी, धर्मवादी, विनयवादी होते हैं । उनको वह सब मालूम रहता है जो देवताओं, मार, ब्रह्मा सहित लोक की देव - मनुष्य- श्रमण-ब्राह्मण - सहित जनता ने देखा, सुना, पाया, जाना, खोजा, मन से विचारा होता है । जिस रात्रि को तथागत अनुपम सम्यक संबोधि प्राप्त करते हैं और जिस रात्रि को उपाधि-रहित परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं, इन दो घटनाओं के बीच में जो कुछ कहते हैं, जो निर्देश देते हैं, वह सब वैसा ही होता है, अन्यथा नहीं । इसीलिए तथागत यथावादी तथाकारी और यथाकारी तथावादी होते हैं । तत्पश्चात भगवान ने 'अव्याकृत' और 'व्याकृत' विषयों की चर्चा करते हुए कहा कि वही विषय व्याकरणीय (विवेचन - योग्य) होते हैं जो अर्थोपयोगी, धर्मोपयोगी, ब्रह्मचर्योपयोगी अथवा एकांत-निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, ज्ञान, संबोधि, निर्वाण के लिए हों, जैसे- 'यह दुःख है', 'यह दुःख का समुदय है', 'यह दुःख का निरोध है', 'यह दु:ख निरोध का उपाय है ।' तदुपरांत उन्होंने पूर्वांत और अपरांत दृष्टियों की चर्चा करते हुए कहा कि जो लोग केवल अपनी दृष्टि को सच और बाकी सब को झूठ बतलाते हैं, मैं उनसे सहमत नहीं हूं क्योंकि ऐसे मामलों में अलग प्रकार से सोचने वाले लोग भी होते हैं। इस प्रज्ञप्ति में मैं किसी को अपने समान भी नहीं देखता, अपने से बढ़ कर कहां ? बल्कि प्रज्ञप्ति में मैं ही बढ़-चढ़ कर हूं। इन सभी दृष्टियों को दूर करने के लिए मैंने चार स्मृति - प्रस्थान प्रज्ञप्त किये हैं- स्मृति और संप्रज्ञान बनाये हुए, उद्योगशील हो, काया में कायानुपश्यना करना, वेदनाओं में वेदनानुपश्यना करना, चित्त में चित्तानुपश्यना करना, धर्मों में धर्मानुपश्यना करना । एक समय भगवान सावत्थी उन्होंने भिक्षुओं को संबोधित करते Jain Education International ७. लक्खणसुत्त अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार कर रहे थे। वहां हुए कहा कि महापुरुष के बत्तीस शरीर लक्षण होते हैं । इन 25 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009978
Book TitleDighnikayo Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size11 MB
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