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________________ [१४] उस समय निग्रंथ नाटपुत्त की पावा में हाल ही में मृत्यु हुई थी। उनके मरने पर निग्रंथों में फूट पड़ गयी और धर्म-विनय को लेकर आपस में वाग्युद्ध होने लगा । उनके गृहस्थ शिष्य भी धर्म में अन्यमनस्क हो खिन्न और विरक्त रहने लगे। चुन्द नाम के व्यक्ति से यह समाचार जान कर आयुष्मान आनन्द उसे अपने साथ ले कर भगवान के पास गये और उन्हें भी इसकी जानकारी दी। भगवान ने कहा जहां शास्ता सम्यक संबद्ध नहीं होता, धर्म दुराख्यात, दुष्प्रवेदित, पार न लगाने वाला, शांति न पहुँचाने वाला होता है और उस धर्म में श्रावक धर्मानुसार मार्गारूढ़ होकर विहार नहीं करते, वहां शास्ता की भी निंदा होती है, धर्म की भी, श्रावक की भी। इस समय लोक में मैं अरहंत, सम्यक संबुद्ध, शास्ता उत्पन्न हुआ हूं, धर्म स्वाख्यात, सुप्रवेदित, पार लगाने वाला, शांति पहुँचाने वाला है; और मेरे श्रावक सद्धर्म का आशय समझते हैं और उनका ब्रह्मचर्य सांगोपांग तथा सब तरह से परिपूर्ण है। मेरा यह ब्रह्मचर्य समृद्ध, उन्नत, विस्तारित, प्रसिद्ध, विशाल और देवों तथा मनुष्यों में सु-प्रकाशित है। मैंने स्वयं जान कर जिन धर्मों का उपदेश किया है उनका सभी को मिलजुल कर संगायन करना चाहिए । उनमें विवाद नहीं करना चाहिए। ये धर्म हैं - चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पांच इंद्रिय, पांच बल, सात बोध्यंग और आर्य अष्टांगिक मार्ग । मेरा धर्मोपदेश ऐहलौकिक और पारलौकिक- दोनों ही आनवों के संवर और नाश के लिए होता है। सुखोपभोग दो प्रकार के होते हैं - एक वे जो निकृष्ट, मूंढों द्वारा सेवित, अनर्थयुक्त होते हैं जिनका प्रयोजन न निर्वेद, न विराग, न निरोध, न शांति, न अभिज्ञा, न संबोधि और न निर्वाण होता है; दूसरे वे जो एकांत-निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, अभिज्ञा, संबोधि और निर्वाण के लिये होते हैं। पहली प्रकार के सुखोपभोग हैं - जीवों का वध कर, चोरी कर, झूठ बोल, पांच कामगुणों से सेवित हो आनन्द मनाना | दूसरी प्रकार के सुखोपभोग हैं - चारों ध्यानों को प्राप्त कर विहार करना । इसके चार फल हो सकते हैं- १. तीन संयोजनों के नाश से अविनिपातधर्मा, नियत संबोधि-परायण स्रोतापन्न होना; २.तीन संयोजनों के नाश के अतिरिक्त राग, द्वेष और मोह के दुर्बल हो जाने से सकदागामी होना: ३.पांच अवरभागीय संयोजनों के नष्ट हो जाने से औपपातिक देवता हो वहीं निर्वाण पा लेना; और ४.आनवों के क्षय से आम्नव-रहित चेतोविमुक्ति, प्रज्ञाविमुक्ति को यहीं स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर, प्राप्त कर, विहार करना । जानन-हार, देखन-हार, अरहंत, सम्यक संबुद्ध अपने श्रावकों को जो धर्म-देशना देते हैं वह 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009978
Book TitleDighnikayo Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size11 MB
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