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________________ [१३] * ये वाचिक आचरण के बारे में धर्मोपदेश करते हैं। * ये शील-संबंधी आचरण के बारे में धर्मोपदेश करते हैं। * ये सोतापन्न, सकदागामी, अनागामी तथा अरहंत - इनसे संबंधित अनुशासन-विधि का उपदेश करते हैं। • ये परपुद्गलविमुक्तिज्ञान को उपदेशते हैं। • ये तीन प्रकार के शाश्वत-वादों को लेकर धर्मोपदेश करते हैं। * ये अनेक प्रकार के पूर्व-जन्मों को आकार और नाम के साथ स्मरण करते हैं और सत्वों की च्युति तथा उत्पत्ति के बारे में भी धर्मोपदेश करते हैं। * ये ऋद्धिविध (दिव्य शक्तियों) के बारे में धर्मोपदेश करते हैं। तत्पश्चात भगवान ने सारिपुत्त के इस कथन को धर्मानुकूल बतलाया कि अतीत काल में जो अरहंत सम्यक संबुद्ध थे वे संबोधि में भगवान के बराबर थे और जो अनागत काल में होंगे वे भी उनके बराबर होंगे। उन्होंने यह भी प्रज्ञप्त किया कि एक ही लोकधातु में एक ही समय दो अरहंत सम्यक संबुद्ध नहीं हो सकते । भगवान ने सारिपुत्त से कहा तुम भिक्षु-भिक्षुणियों तथा उपासक-उपासिकाओं को यह धर्मोपदेश देते रहो । इससे जिन अजान व्यक्तियों को तथागत के बारे में कोई संशय अथवा संदेह होगा वह दूर हो जायेगा। सारिपुत्त द्वारा इस प्रकार भगवान के सम्मुख अपना संप्रसाद (श्रद्धाभाव) व्यक्त करने के कारण इस उपदेश का नाम 'सम्पसादनीय' पड़ा। ६. पासादिकसुत्त एक समय भगवान शाक्य-देश में वेधा नामक शाक्यों के अम्बवन प्रासाद में विहार करते थे। 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009978
Book TitleDighnikayo Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages338
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size11 MB
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