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________________ का साक्षात्कार कर, सभी संशयों से मुक्त हो, उन्होंने बुद्ध और धर्म की शरण ग्रहण की और शनैः शनैः उनके चित्त नितांत आसव-विहीन हो गये | फिर धर्म के महत्व को भांप कर बहुत बड़ी संख्या में अन्य लोग भी घर से बे-घर हो भगवान के पास धर्म सीखने के लिए आये और इसी प्रकार आसव-विहीन हुए। उन दिनों राजधानी बन्धुमती में अड़सठ लाख भिक्षुओं का महासंघ निवास करता था। भगवान ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा – 'भिक्षुओं! चारिका के लिए जाओ, बहुत लोगों के हित के लिए, बहुत लोगों के सुख के लिए, लोगों पर अनुकंपा करने के लिए, देवों और मनुष्यों के अर्थ, हित और सुख के लिए । एकाकी नहीं, दो-दो होकर जाओ | आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अंत में कल्याणकारी, अर्थ-युक्त, विशद, केवल परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाशन करो। थोड़े से मैल के कारण धूमिल दृष्टि वाले ऐसे लोग हैं जो धर्म की बात न सुनने के कारण हानि उठा रहे हैं । वे धर्म को समझने वाले हो जायेंगे । और छह छह वर्षों के अंतराल पर प्रातिमोक्ष के वाचन के लिए राजधानी बन्धुमती में आते रहना।' यह सुनकर अधिकांश भिक्षु एक ही दिन में चारिका के लिए निकल पड़े और छह वर्ष बाद राजधानी में लौट आये । उस समय भिक्षु-संघ के लिए प्रातिमोक्ष का पाठ करते हुए विपस्सी भगवान ने कहा ‘क्षांति और तितिक्षा परम तप हैं; प्रव्रजित श्रमण दूसरों को हानि नहीं पहुँचाता, न दूसरों को कष्ट देता है । बुद्ध-जन निर्वाण को सबसे उत्तम बतलाते हैं।' 'सब प्रकार के पापों का न करना, कुशल कर्मों का संचय करना, चित्त को निर्मल करते रहना - यह बुद्धों की शिक्षा है।' 'कठोर वचन, दुर्वचन न कहना, दूसरों की हिंसा न करना, प्रातिमोक्ष में संयम बरतना, भोजन की मात्रा को जानना, एकांत में सोना-बैठना, समाधि का अभ्यास - यह बुद्धों की शिक्षा है।* अंत में भगवान ने कहा एक समय मुझे सुद्धावास देवों ने कहा था कि आज से इक्यानवे कल्प पहले विपस्सी भगवान ने संसार में जन्म लेकर संबोधि प्राप्त कर धर्मचक्र प्रवर्तित किया था और हम लोग उन्हीं के शासन में ब्रह्मचर्य का पालन कर, सांसारिक भोग-विलासों से विरक्त हो, यहां उत्पन्न हए हैं। अन्य देव-लोकों के देवों ने भी अपने आप को भगवान विपस्सी से लेकर उनके 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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