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________________ [४] के कारण नामरूप, नामरूप के कारण छह इन्द्रियां, छह इन्द्रियों के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जन्म और जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और उपायास होते हैं । इस प्रकार इस 'केवल दुःख - समूह' की ही उत्पत्ति होती है । तदनंतर उन्होंने यह भी जान लिया कि नामरूप के निरोध से विज्ञान, विज्ञान के निरोध से नामरूप, नामरूप के निरोध छह इन्द्रियां, छह इन्द्रियों के निरोध से स्पर्श, स्पर्श के निरोध से वेदना, वेदना के निरोध से तृष्णा, तृष्णा के निरोध से उपादान, उपादान के निरोध से भव, भव के निरोध से जन्म और जन्म के निरोध से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और उपायास- सभी निरुद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार सारे दुःखों का निरोध हो जाता है । इस सारे प्रपंच की उत्पत्ति और निरोध को जानकर बोधिसत्व विपश्यी के चक्षु ऐसे धर्म में खुले जिसके बारे में पहले कभी सुना ही नहीं था। उनमें ज्ञान जाग उठा और जाग उठे - प्रज्ञा, विद्या, आलोक | तत्पश्चात बोधिसत्व ने पांच उपादान स्कंधों में उदय - व्यय को देखा - यह रूप है, यह रूप का समुदय है, यह रूप का अस्त जाना है; यह वेदना है, यह वेदना का समुदय है, यह वेदना का अस्त हो जाना है; यह संज्ञा है, यह संज्ञा का समुदय है, यह संज्ञा का अस्त हो जाना है; यह संस्कार है, यह संस्कार का समुदय है, यह संस्कार का अस्त हो जाना है; यह विज्ञान है, यह विज्ञान का समुदय है, यह विज्ञान का अस्त हो जाना है। इन पांचों स्कंधों के उत्पत्ति - विनाश को देखकर उनका चित्त शीघ्र ही चित्त-मलों से सर्वथा मुक्त हो गया । तब सम्यक संबुद्ध हुए विपस्सी भगवान ने अपने बुद्ध-चक्षु से संसार को देखा। इसके फलस्वरूप उन्होंने विविध प्रकार के प्राणियों को देखा - अल्प रज वाले, अधिक रज वाले; तीक्ष्ण इन्द्रिय वाले, मृदु इन्द्रिय वाले; अच्छे आकार वाले, बुरे आकार वाले; बात को जल्दी समझने वाले, बात को देर से समझने वाले; परलोक का भय खाने वाले, परलोक का भय न खाने वाले । तब उनके मन में हुआ कि जो कोई श्रद्धा के साथ मेरी बात सुनेंगे उनके लिए अमृत अर्थात क्ष द्वार खुल जायेगा । तदनंतर विपस्सी भगवान ने सर्वप्रथम मेधावी राजपुत्र खण्ड और पुरोहितपुत्र तिस्स को स्वयं अनुभव किये गये धर्मदुःख, समुदय, निरोध तथा मार्ग का उपदेश दिया जिससे इन्हें भी विमल धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ - 'जो कुछ समुदयधर्मा है वह सब निरोधधर्मा है।' इस प्रकार इसी जीवन में धर्म - Jain Education International - 14 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
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