SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरवर्ती सम्यक-संबुद्धों सिखी, वेस्सभू, ककुसन्ध, कोणागमन, कस्सप तथा मेरा साक्षी होना बतलाया था । तथागत की धर्म-धातु इतनी बींधने वाली होती है कि इससे वह अतीत काल में परिनिर्वाण प्राप्त किये हुए, सारे प्रपंच को छिन्न-भिन्न किये हुए, सारे दुःखों से विमुक्त हुए, बुद्धों को उनके सारे विवरण सहित उन्हें जान लेते हैं। २. महानिदानसुत्त एक समय जब भगवान कुरु-देश में कुरुओं के निगम कम्मासधम्म में विहार कर रहे थे, आयुष्मान आनन्द ने उनसे कहा - 'आश्चर्य है भंते ! अद्भुत है भंते ! कितना गंभीर है और गंभीर-सा दीखता भी है यह प्रतीत्यसमुत्पाद, किन्तु मुझे यह साफ-साफ दिखलाई पड़ता है।' इस पर भगवान ने उन्हें समझाया- 'ऐसा मत कहो आनन्द ! यह प्रतीत्यसमुत्पाद गंभीर है और गंभीर-सा दिखलाई भी देता है । आनन्द ! इस धर्म के न जानने से ही यह प्रजा उलझे सूत-सी, गांठें पड़ी रस्सी-सी, ज-बल्वज-सी, अपाय, दुर्गति और पतन को प्राप्त होती है और संसार से पार नहीं हो पाती।' तत्पश्चात भगवान ने उन्हें, कारणों के विश्लेषण सहित, प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत समझाया- “नाम-रूप के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नाम-रूप । नाम-रूप के कारण स्पर्श होता है, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जन्म और जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और उपायास होते हैं । इस प्रकार इस 'केवल दुःख-पुंज' का समुदय होता है।" तदनंतर भगवान ने बतलाया कि आत्मा को मानने वाले आत्मा का प्रज्ञापन चार प्रकार से करते हैं- १.यह रूपवान और सूक्ष्म है; २.रूपवान और अनंत है; ३.रूपरहित और सूक्ष्म है; ४.रूपरहित और अनंत है | आत्मा को नहीं मानने वाले इन प्रज्ञप्तियों को नकारते हैं। आत्म-दर्शी आत्मा को तीन प्रकार से जानता है -- १.वेदना मेरी आत्मा है; २.वेदना मेरी आत्मा नहीं, अ-प्रतिसंवेदन मेरी आत्मा है; अथवा ३.न वेदना मेरी आत्मा है, न अ-प्रतिसंवेदन मेरी आत्मा है, मेरी आत्मा वेदना धर्म वाली है । ये तीनों प्रकार के चिंतन ठीक नहीं हैं। पहले प्रकार के चिंतन में यह दोष है कि वेदनाएं तीन प्रकार की होती हैं - सुखद, दु:खद और अदु:खद-असुखद - और इन तीनों में से जिस समय जो प्रकट होती है उस समय वही अनुभव 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009977
Book TitleDighnikayo Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith & Buddhism
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy