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________________ जिनप्रतिमा मानने और पूजने की चर्चा ७१ विशेष) का है । स्वलिंगी (जैनधर्म का ) नहीं है । यह जानकर श्री पूज्य रामचन्द्रजी ने निश्चय किया कि हमारे लोंकागच्छीय यति आज से मुँह पर मुँहपत्ती बाँधकर न तो व्याख्यान करेंगे और न ही सामायिक और प्रतिक्रमण आदि करेंगे। खेद का विषय है कि यह पंचमकाल और हुण्डा अवसर्पिणी का प्रभाव है । श्रीमहानिशीथसूत्र में वर्णन आया है - श्रीमहावीर प्रभु फरमाते हैं - " है गौतम ! जब मेरे निर्वाण को साढे बारह सौ वर्ष बीत जावेंगे, तब अपनी स्वकल्पना से मेरे शासन में कई मतमतांतर हो जावेंगे। कोई विरला ही समण, श्रमण, माहण होगा।" जैनागमों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि स्थानकमार्गी (जिनके ढूंढिये, बाइसटोला, स्थानकवासी श्रमणोपासक, साधुमार्गी, लुंकापंथी पर्यायवाची नाम हैं) साधुओं का वेष और आचार आगमानुकूल नहीं हैं । ऐसा निश्चय कर स्यालकोट के लोंकागच्छीय श्रीपूज्य रामचन्द्रजी ने जहाँ जहाँ उनके अनुयायी यति (पूज) थे, उन सबके नाम आज्ञापत्र लिखकर अपने मुख्य श्रावकों द्वारा उनके पास पहुँचा दिये। उन चिट्ठियों में यह लिखा था कि - i "हमने आगमों को अच्छी तरह से अवलोकन करके इस बात को भलीभाँति जान लिया है कि मुख पर मुखपत्ती बाँधना श्रीवीतराग केवली प्रभु की आज्ञा के अनुकूल नहीं है । अत: तुम लोगों ने मुँहपत्ती बाँध कर व्याख्यानादि नहीं करना तथा सब धर्मक्रियाएं आदि मुँहपत्ती को हाथ में लेकर अपने मुख के आगे १. इस समय रेल तथा तार द्वारा पत्र भेजने की कोई व्यवस्था नहीं थी । सब चिट्ठियाँ ग्रामांतर में आने-जानेवालों के साथ अथवा किसी व्यक्ति को भेजकर पहुंचायी जाती थी । Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [71]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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