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________________ उग्र विरोध का झंझावात ५७ तक आपकी निश्रा में रहकर वह शास्त्राभ्यास व धर्म-ध्यान करता रहता था। इस वर्ष भाई मोहनलाल स्यालकोट में भाई सौदागरमल भावडे के पास जैनधर्म के शास्त्रों का अभ्यास करने के लिये आया हुआ था । उसने स्यालकोट के भाइयों के मुख से सुना कि "बूटेरायने साधुपना छोड दिया है। उसने मुखवस्त्रिका का त्याग कर दिया है और वह यति (पूज) हो गया है। प्रतिमा को मानने लग गया है" इत्यादि आपकी अनेक प्रकार की निंदा सुनी। मोहनलाल ने कहा कि "ऋषि बूटेरायजी तो ऐसे पुरुष नहीं हैं कि वह कोई बिना विचारे काम करें । उनके त्याग-वैराग्य की उत्कृष्टता जगविख्यात है। सारे पंजाब में उनके चारित्र की उत्कृष्टता की तुलना करने में एक भी स्थानकमार्गी साधु-साध्वी दृष्टिगत नहीं होता और नहीं किसी का नाम सुनने में आया है।" तब वे भाई बोले कि "कर्मों की गति बडी विचित्र है। पापकर्म के उदय से बडे-बडे संयमधारी भी पतित हो जाते हैं, तो बूटेराय किस बाग की मूली है (किस गिनती में है) ! घडी में परिणाम कुछ के कुछ हो जाते हैं। पहले तो अच्छा ही था, अब उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है, वह संयम से विचलित होकर पथभ्रष्ट हो गया है, उसकी जैनधर्म पर श्रद्धा भी नहीं रही। यह जैनों (स्थानकमार्गी) के आचार्य, उपाध्याय तथा मुनियों आदि का निन्दक है। उनको निह्नव, कुलिंगी, अन्यलिंगी, मिथ्यादृष्टि कहता है। गुजरांवाला में बैठा है। यदि उसमें हिम्मत है तो एक बार यहाँ आवे, तब उसे आटे-दाल का भाव मालूम हो जावेगा" इत्यादि बातें सुनकर तपस्वी मोहनलाल भाई अवाक रह गया, उसके हृदय में एक हुक सी उठी Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [57]]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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