SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ सद्धर्मसंरक्षक मोहनलाल संसार से विरक्त हो चुका था, उसकी दीक्षा लेने की उत्कट भावना थी, पर नेत्रहीन होने से उसकी यह भावना सफल न हो सकी। वह घर को छोड़ कर प्राय: उपाश्रय में ही रहने लगा था । बुद्धि का बहुत विचक्षण था । कुछ आगमों का भी अभ्यास कर लिया था। इस प्रकार वह जैन दर्शन के ज्ञान में अच्छा प्रवीण हो गया था और स्वल्प परिमित आहार -पान करता था, वह भी मात्र शरीर को भाडा देने के लिये । वह बाल- ब्रह्मचारी था । नवकारसी, पोरिसी, साङ्ख्पोरिसी, पुरिमट्ट, एकासना, आयंबिल, उपवास, बेला, तेला, अट्ठाई, आधामास, मासखमण आदि अनेक प्रकार की छोटीबड़ी तपस्याएं करता रहता था। सारे पंजाब में इसकी मान-प्रतिष्ठा बहुत थी । श्रावक के सम्यक्त्वमूल बारह व्रतों को धारण किए था। नित्य प्रतिक्रमण, सामायिक आदि करता था और पर्व दिनों में पोसह, संवर आदि भी करता था। इसको आपश्री पर अनन्य श्रद्धा और आस्था थी। जहां कहीं भी आप विराजते वहाँ रावलपिंडी से पैदल चलकर आपके दर्शन को आता रहता था। कई कई महीनों दुराचारी उज्जैन के गर्द्धभ राजाको पदच्युत करनेवाले) अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध आदि देशों में विचरे थे। उनका गच्छ “भावडा" था। उनकी वीर्यता, शौर्यता, चारित्रसंरक्षण और जैनशासनसंरक्षण के लिये अपने प्राणों पर भी खेल जाने को उद्यत रहने से प्रभावित होकर यहाँ के ओसवाल उनके अनुयायी हो गये थे, पश्चात् कालिकाचार्य के शिष्य - प्रशिष्यों के सिंध- पंजाब आदि में विचरते रहने से यहाँ के ओसवाल “भावडागच्छ” के अनुयायी बने रहे। विक्रम की १७ वीं १८ वीं शताब्दी से श्वेताम्बर जैन मुनिराजों का सिंध और पंजाब में विहार न होने के कारण ढूंढिया (स्थानकमार्गियों) के प्रभाव से ये स्थानकमार्गी बन गये थे। परन्तु प्राचीन समय से "भावडा " शब्द से आजतक ये लोग प्रख्यात रहे। आज के नये वातावरण के प्रभाव में आकर यहाँ के ओसवाल लोग अपने आपको जैन कहने लगे हैं और भावडा शब्द को विस्मृत कर गये हैं । Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [56]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy