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________________ ५८ सद्धर्मसंरक्षक और चोट सी लगी। ठंडी सांस लेकर चप हो गया। उसके हृदय में उथल-पुथल मच गई, उसे एक क्षण भी चैन न पडा । कुछ देर के बाद तपस्वी मोहनलालजी बोले - "यदि बूटेराय संयम से गिर गया है तो मैं उसे एक बार अवश्य मिलूंगा । यदि वह समझाने-बुझाने पर और उपदेश देने से सन्मार्ग पर आ जावे तो अच्छी बात है। एक बार तो मैं अवश्य ही प्रयत्न करूंगा।" तपस्वी मोहनलालभाई स्यालकोट से चालीस मील पैदल चलकर आपके पास गुजरांवाला में आ ही पहुंचा । आपके विषय में जो कुछ उसने सुन रखा था, बड़े दुःखी दिल से कह सुनाया और मार्मिक शब्दों में आप से पुनः मुख पर मुँहपत्ती बाँधने के लिए आग्रह किया । परन्तु जब आपसे और गुजरांवाला के भाइयों से तपस्वीजी ने वस्तु-स्थिति को समझा तो उसे पता चला कि स्थानकमागियों की सब बातें तथा प्रचार अनर्गल हैं । अब तपस्वीजी ने भी जिनप्रतिमा पूजने तथा मुख पर मुंहपत्ती बाँधने के विषय में अनेक दिनों तक आपके साथ चर्चा की । अन्त में आपकी और तपस्वीजी की मान्यता, विचारधारा तथा श्रद्धा एक हो गई । अर्थात् वह भी आपकी मान्यता से सहमत हो गया। फिर आपसे तपस्वीजी ने कहा- "महाराजजी ! मैं एक बार फिर आपको साथ लेकर स्यालकोट जाना चाहता हूँ । यदि हम न जाएंगे तो वहाँ के लोग यही कहेंगे कि 'तपस्वी बूटेराय के बहकावे में आ गया है। यदि बूटेराय यहाँ आकर हमारे साथ चर्चा करे तो १. उस समय रेलगाडी, मोटरें, साइकिल आदि सवारी के साधन कुछ न होने से लोग पैदल यातायात करते थे। Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [58]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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