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________________ आगमानुकूल चारित्र पालने की धून प्रवृत्ति भी चालू रखी । व्याख्यान आदि भी करते । विहार भी चालू रखते । गुरुदेव के आशीर्वाद से आपकी मान-प्रतिष्ठा भी दिनप्रतिदिन बढने लगी। अच्छे घराने के दो चेले भी आप के हो गये। परन्तु एक बात तो आपको सदा खटकती ही रही कि आप सद्गुरु के बिना जैनधर्म के मर्म को न जान पाये। फिर भी आपने साहस को न छोडा । दिनरात आगमों के अभ्यास को बढाते चले गये । आगमों का अभ्यास करते हुए आपको ऐसा ज्ञात हो गया कि "जिन प्रतिमा को मानने के पाठ आगमों में विद्यमान है। परन्तु आश्चर्य की बात है कि स्थानकमार्गी और तेरापंथी दोनों पंथ जिनमूर्ति की मान्यता का घोर विरोध करते हैं तथा कहते हैं कि जिनप्रतिमा मानना आगमानुकूल नहीं है । जिनप्रतिमा मानने में मिथ्यात्व है तथा इसके पूजन में हिंसा है। इस प्रकार जिनप्रतिमा की मान्यता का निषेध करते हुए अघाते ही नहीं हैं। जो हो।" किन्तु आगमों के अभ्यास से जिनप्रतिमा मानने की आपको दृढ श्रद्धा होती गयी। पंजाब से विहार कर आप दिल्ली पधारे । इस वर्ष वि० सं० १८९५ (ई० स० १८३८) को स्थानकमार्गी ऋषि रामलालजी भी दिल्ली में थे। इन्होंने अमरसिंह नामक अमृतसर के एक ओसवाल भावडे को (जिसकी आयु ३३-३४ वर्ष की थी) दीक्षा दी। वि० सं० १८९५ का चौमासा आपने दिल्ली में ही किया । एकदा ऋषि रामलालजी बीमार पड गये, आप भी उनकी सुखसाता पूछने के लिये गये । रामलालजी भी मलूकचन्दजी के आज्ञानुवर्ती समुदाय के साधु थे । अपने मत के पंडित थे, बत्तीस सूत्रों के जानकार थे। एक दिन अमरसिंह किसी गृहस्थ से 'विपाकसूत्र' ले आया । उसने आपसे कहा - "बूटेरायजी ! यह देखिये ! विपाक Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [17]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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