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________________ सद्धर्मसंरक्षक धर्म का उद्योत करनेवाले बनो । तुम्हें किसी भी वस्तु की कमी नहीं रहेगी।" आपने कहा- "गुरुदेव ! आपश्री के आशीर्वाद से सब अच्छा होगा। आप मेरे पर कृपादृष्टि रखना । मेरे लिये आपकी जो आज्ञा हो वह फरमायें।" गुरुमहाराज ने कहा - "तुम किसी मत-कदाग्रही का संग मत करना । जहां तेरे धर्म की पुष्टि-वृद्धि हो वहा रहना और वैसा ही करना । तुम को मेरी यही अन्तिम आज्ञा है।" फिर ऋषि नागरमल्लजी ने अपने बडे चेले हीरालाल को बुलाया और उसे अपने बाकी के सब पोथी-पन्ने देकर कहा कि "मैंने बूटे को कुछ नहीं दिया। मेरे पास जो कुछ है वह सब तुम्हें दिये जा रहा हूँ।" ऐसा कह कर दिन के तीसरे पहर कालवश हो गये (स्वर्ग सिधार गये)। अब ऋषि बूटेरायजी कुछ समय दिल्ली में रहे। पश्चात् विहार कर पटियाला नगर में पधारे । यहाँ आपने बहुत तप किया । कडाके के जाडों में भी आप मात्र एक सूती चादर रखते थे। कभी नग्न होकर ध्यान लगाते । बेले-तेले से लगाकर पन्द्रह उपवास तक तप करते । एक, दो, तीन, चार आदि आयंबिल एकांतरे करते । वि० सं० १८९४ (ई० स० १८३७) का चौमासा पटियाला में किया । एक बार मालेरकोटला (पंजाब) में छह महीने का अभिग्रह किया। गोचरी के लिये मात्र एक पात्र ही रखते । घरों में जब सब लोग भोजन कर लेते उसके बाद दोपहर के लगभग एक बजे गोचरी जाते । घरों में जो कुछ बचा-खुचा आहार में मिलता सब उसी एक ही पात्र में ले लेते, उन सबको मिला लेते और दिन में मात्र एक बार ही आहार करते । आपके सब अभिग्रह निर्विघ्न सुखपूर्वक पूर्ण होते गये। दिन-रात आगमों के पठन, वांचन, मनन, चिन्तन, स्वाध्याय में ही तल्लीन रहने लगे। हस्तलिखित प्रतियाँ लिखने की Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [16]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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