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________________ आगमानुकूल चारित्र पालने की धून वापिस दिल्ली में ऋषि नागरमल्लजी के पास लौट आये । उन्होंने आपको अपने साथ मिला तो लिया परन्तु मन से पढाया नहीं। इस विषय में आप कहते हैं कि "मैं उनसे बिगाड कर तो गया नहीं था। परन्तु सत्य की खोज के लिए निकला था। जब तेरापंथियों के वहां भी सत्य की प्राप्ति न हुई तब गुरु के पास वापिस आना ही उचित समझा । मेरे गुरु प्रायः बीमार रहने लगे। मैंने उनकी तनमन से खूब सेवा-भक्ति की । निष्कपट भाव से उन की आज्ञाओं का पालन भी किया, उनकी टट्टी-पेशाब (ठल्ला, मात्र)भी उठाये । जब चलने से अशक्त हो गये तक कंधो पर चढा कर भी लिये फिरा । उनकी सेवा-शुश्रूषा वैयावच्च करने में कभी न रखी । पर गण मन फटनेके बाद मिलने कठिन हैं । इसलिये उन्होंने मुझे मन से पढाया नहीं। दूसरे कारण उनके रोगी तथा वृद्धावस्था भी थे। मैंने उनकी टहल-सेवा करने में दिन-रात एक कर दिया, कोई कसर उठा न रखी । सेवा-शुश्रूषा, वैयावच्च के बाद जो समय मिल पाता उसमें पढता-लिखता । जब गुरुदेव सो जाते तब रात को बोलविचार, थोकडों आदि की पुनरावृत्ति कर लेता । जब अवसर मिलता तब गुरुमहाराज से दशवैकालिक आदि सूत्रों का वांचन करता । बोल, विचार थोकडे आदि भी सीखता । गाथाए भी लिख लेता।" इस प्रकार तीन वर्ष व्यतीत हो गये । वि० सं० १८९२-९३ (ई० स० १८३५-३६) के चतुर्मास आपने गुरुजी के साथ दिल्ली में ही किये । वि०सं० १८९३ (ई० स० १८३६) को नागरमल्लजी का दिल्ली में देवलोक हो गया। देवलोक होते समय आपको गुरुजी ने अपने पास बुलाया और पांच हस्तलिखित शास्त्रों की प्रतिया देकर बोले - बेटा ! "तुमने मेरी बडी सेवा की है। तुम सदा सुखी रहो, Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [15]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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