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________________ श्रीशांतिसागर से पुनः शास्त्रार्थ १९७ साथ श्रीआत्मारामजी सब गुरुभाइयों और शिष्य-परिवार के साथ पधारे, उधर से श्रीशांतिसागर भी अपने कतिपय अनुयायियों के साथ व्याख्यान-सभा में आ पहुँचे । शांतिपूर्वक सब के बैठ जाने पर श्रीशांतिसागरजी ने अपना भाषण प्रारम्भ किया जो कि बराबर घंटा-सवा घंटा तक चालू रहा । इस प्रकार तीन दिन के व्याख्यान में आपने अपने एकान्त निश्चयवाद को सिद्ध करने का भरपूर प्रयत्न किया । आपके कथन का सार मात्र इतना ही था कि आजकल कोई भी व्यक्ति शास्त्र में लिखे मुताबिक साधु और श्रावक धर्म का पालन नहीं कर सकता । इसलिये न कोई यथार्थ रूप में साधु है और न श्रावक । तीन दिन के बाद मुनि श्रीआनन्दविजय (आत्मारामजी) की बारी आयी । तब आपने श्रीशांतिसागरजी के मन्तव्य को शास्त्र-विरुद्ध ठहराते हुए कहा कि एकान्त निश्चय और एकान्त व्यवहार ये दोनों ही मन्तव्य शास्त्रबाह्य होने से त्याज्य हैं। जैन सिद्धान्त में निश्चय और व्यवहार दोनों को ही सापेक्ष स्थान प्राप्त है। इस लिये केवल निश्चय को मानकर व्यवहार का अपलाप करना सर्वथा शास्त्रविरुद्ध है। इस मान्यता में एकान्तवाद का समर्थन होने से यह सम्यग्दर्शन का बाधक और मिथ्यात्व का पोषक हो जाता है । इसके अतिरिक्त श्रीशांतिसागरजी ने जो यह कहा है कि आजकल कोई भी शास्त्र में लिखे मुताबिक साधु-धर्म और श्रावक-धर्म को नहीं पाल सकता, यह भी ठीक नहीं है। आज भी शास्त्रानुसार निश्चय और व्यवहार, उत्सर्ग और अपवाद को लेकर समयानुसार साधुधर्म का पालन किया जा सकता है । जिस कोरे आध्यात्मवाद की प्ररूपणा करते हुए उन्होंने साधु-धर्म का स्वरूप बतलाया है, उसके अनुसार यदि वह स्वयं चलकर दिखलावें, Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [1971
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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