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________________ १९६ सद्धर्मसंरक्षक श्रीबुद्धिविजयजी ने शांतिसागर को उत्तर दिया कि "न भाई ! मैं तो किसी भी वाद-विवाद में नहीं पडता और न मुझे इस प्रकार का वाद-विवाद पसंद ही है। इसलिये तुम दोनों ही आपस में निपट लो । मुझे बीच में लाने की आवश्यकता नहीं है।" जब इस बात का पता आत्मारामजी को लगा और उन्होंने सारी परिस्थिति का पूरा अध्ययन किया, तब शांतिसागर के अंतरंग आशय को भाप लिया। आप उनके सब मनोरथों को विफल बनाने के लिये अपने गुरुमहाराजजी से बोले- "गुरुदेव! आपश्री इससे पीछे क्यों हटते हैं। यदि श्रीशांतिसागरजी की यही इच्छा है तो उसे पूरी होने दीजिये । आप सभा में पधारें, आपके एक तरफ मैं बैलूंगा, दूसरी तरफ श्रीशांतिसागरजी बैठेंगे । प्रथम लगातार तीन दिन तक शांतिसागरजी का भाषण हो और बाद में तीन दिन मैं कहूँगा। दोनों के कथन को सभा में उपस्थित सब श्रोता लोग सुनेंगे और सुनकर स्वयं निर्णय कर लेंगे। ऐसी व्यवस्था में आप को क्या आपत्ति है?" श्रीबुद्धिविजयजी - "कुछ भी नहीं।" श्रीआत्मारामजी - "तब आप श्रीशांतिसागरजी को बुलाकर दो-चार मुख्य श्रावकों के सामने उनसे वार्तालाप करके चर्चा के लिये दिन का निश्चय कर लें।" इसके उत्तर में 'बहुत अच्छा' कहकर सदगुरुदेव श्रीबूटेरायजी ने शांतिसागरजी को बुलाकर उनसे बातचीत करके शास्त्रार्थ के लिये दिन और समय आदि का निश्चय कर लिया। श्रीशांतिसागर से पुनः शास्त्रार्थ निश्चित हुए दिन में समय से पहले ही जनता से व्याख्यान सभा का स्थान खचाखच भर गया था। गुरुदेव बुद्धिविजयजी के Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [196]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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