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________________ सद्धर्मसंरक्षक अंगीकार किया तब वह परमानन्द-सुख के भोक्ता बने । पर जो विषय-सुख में मगन रहकर क्षणिक सुख में धंस गये, राज्य आदि के सुखों को छोड नहीं सके, ऐसे लोग चक्रवर्ती आदि की समृद्धि पाकर भी मरकर नरक के अतितीव्र, दारुण और असह्य वेदनाओं को भोगनेवाले बने । चक्रवर्ती के सुख के सामने मेरे जैसे साधारण मनुष्य का सुख महासमुद्र में से एक बूंद के तुल्य भी तो नहीं है। ऐसा होते हुए भी इसमें मोह पाकर उसे छोड नहीं सकता, यह कैसी मूढता है ? इस संसार का स्वरूप इन्द्रजाल, बिजली की चमक, अथवा संध्या के जैसा अस्थिर, चपल एवं क्षणक्षायी है । दुःख, आधि, व्याधि, उपाधिया आया ही करते हैं। बटासिंह के मनमें सदा ऐसी ही ऊर्मियाँ उठा करती थीं । आपका वैराग्य ज्ञानगर्भित और दृढ था। कोई भी सांसारिक प्रलोभन आपके वैराग्य को मिटा नहीं सकता था। स्थानकमार्गी साधु-दीक्षा ऋषि नागरमल्लजी मलूकचन्दजी के टोले (आज्ञावर्ती समुदाय) के साधु कहलाते थे । इन की गुरु-परम्परा इस प्रकार थी। पूज्य ऋषि गोकलचन्दजी के शिष्य पूज्य मलूकचन्द ऋषिजी, इनके शिष्य ऋषि महासिंहजी, इनके शिष्य ऋषि नागरमल्लजी थे। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए ऋषि नागरमल्लजी दिल्ली जा पहुंचे । श्रीबूटासिंहजी भी नागरमल्लजी के पास दिल्ली पहुंच गये । आप विक्रम संवत् १८८८ (ई० स० १८३१) को पच्चीस वर्ष की आयु में शुभ मुहूर्त में दीक्षा लेकर ऋषि नागरमल्लजी के शिष्य बने । नाम ऋषि बूटेरायजी रखा गया । आपने वि० सं० १८८८ का चौमासा ऋषि नागरमल्लजी के साथ दिल्ली में किया । इस चौमासे में ऋषि Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [10]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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