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________________ सद्गुरु की खोज में ९ इसकी गहराइयों में उतरने से ही वास्तविकता का पता लग सकेगा । इसका सम्पूर्ण बोध तो केवलज्ञान प्राप्त करने पर ही होगा। जो कि अन्तिम भव में ही संभव है। उपर से तो ये लोग ठीक ही मालूम देते हैं ।" ऐसा निश्चय कर आप अपने गाँव को वापिस लौट गये । घर पहुँच कर अपनी माताजी को इन साधुओं की रूपरेखा कह सुनाई। माताजी ने बेटे को सहर्ष दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी । कई मनुष्यों को दरिद्र अवस्था होने से पूरा खाने-पीने को न मिलता हो, बहुत संतानें होने से उनका निर्वाह करने की शक्ति न हो, स्त्री सुन्दर होने पर भी क्लेश - कारिणी हो, सगे-सम्बन्धी अथवा मित्र की मृत्यु हो जाने पर अथवा महत्तावाली जगह में मानहानि हुई हो; ऐसे ऐसे अनेक कारणों के लिए दुःखगर्भित वैराग्य होता है और ऐसे वैराग्य द्वारा दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा होती है, परन्तु आपका वैराग्य ऐसा नहीं था । क्योंकि आपकी संसारी स्थिति बहुत अच्छी थी, बहुत बडी उपजाऊ धरती के मालिक थे। किसी प्रकार की कमी नहीं थी । स्त्री-संतान की उपाधि तो छू न पाई थी, और कोई दूसरा कारण भी ऐसा निष्पन्न नहीं हुआ था, जिससे दुःखगर्भित वैराग्य का कारण बना हो। माता का आप पर अनन्य स्नेह था, वह आपको एक क्षण के लिये भी अपनी आंखों से ओझल नहीं करना चाहती थी । आपके दिल में पूर्व के क्षयोपशम से तथा साधुमहात्मा की भविष्यवाणी को माता-पिता के मुख से सुनकर निरन्तर ऐसा विचार आया करता था कि संसारी अवस्था में भी जिनकी सेवा में षट्खंड के राजा-महाराजा हाजिर रहते थे और षट्खंडराज्य के अधिकारी थे, उन चक्रवर्तियों ने भी जब संसार को असार मानकर राज, ऋद्धि, कुटुम्ब - परिवार आदि को छोड़कर संन्यास Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [9]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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