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________________ १६८ सद्धर्मसंरक्षक उसने अनन्त पुद्गल परावर्तन करने हैं। उसे तो केवली भगवान का उपदेश भी लाभकारी नहीं होता । अभवियों का तो कहना ही क्या है ? हलुकर्मी जीव तो बादलों को देखकर भी प्रतिबोध पा गये । कई लता, बेल, स्तम्भ आदि को देखकर भी प्रतिबोध पा गये। कई चूडियों आदि की झनकार को सुनकर, अन्यथा वृक्षादि वस्तुओं को देखकर प्रतिबोध पा जाते हैं। तीर्थंकर देव की आज्ञा है कि तीर्थंकरों, गणधरों, श्रुतकेवलियों, पूर्वधर-आचार्यों के ग्रंथों को पढकर सूत्र-अर्थ की शैली, नय-निक्षेप, निश्चय-व्यवहार, उत्सर्गअपवाद को समझकर विचार कर आगमों के रहस्य को समझे, अथवा कोई सम्यग्दृष्टि आत्मार्थी पंडित पुरुष मिले तो उससे जानकर निश्चय करे । किन्तु ज्ञान बिना सच-झूठ का निर्णय कैसे संभव है? इसलिये किसी शुद्ध पुरुष की, आत्म-गवेषी की खोज करके उसकी सेवा में रहकर आगमों के रहस्य को समझे । बोधिबीज और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कर वैसी आचरणा करने से आत्मकल्याण संभव है। इस काल में भगवन्त की आज्ञा में जो जीव हैं, उन्हें त्रिकाल वन्दना है। जिस परम्परा में प्ररूपणा और आचरणा श्रीवीतराग भगवन्तों के आगमों से मेल खाती हो और उसे सब सम्यग्दृष्टि जैनधर्मी एक मत से स्वीकार करते हों, उनकी आगमानुकूल ही श्रद्धा हो, उसको प्रमाण करनी चाहिये । मात्र गाडरिया प्रवाह तथा अबोध-बुद्धि से परम्परा से चलती आ रही रूढी हो एवं वीतराग की आज्ञा के बाहर हो, वह धर्म नहीं है। जहाँ धर्म है वहाँ वीतराग की आज्ञा मुख्य है। यदि कर्मयोग से वीतराग की आज्ञा से विपरीत स्थानक को सेवन किया हो अथवा उस विपरीत मार्ग पर श्रद्धा की हो, वह विपरीत वस्तु आचरण करने योग्य तो कदापि नहीं है। यदि कर्मयोग से छोड नहीं सकता, तो Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [168]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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