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________________ १६९ कुछ प्रश्नोत्तर उसे खोटी जानकर छोडने की अभिलाषा अवश्य करे । वह दिन धन्य होगा, जिस दिन सुदेव, सुगुरु की आज्ञा में चलूंगा, ऐसी भावना रखने से भी कल्याण का कारण है। वीतराग की आज्ञा के बाहर श्रद्धा, स्पर्शना, प्ररूपणा सम्यग्दृष्टि को छोडना उचित है । प्रायश्चित्ताख्यान नामक शास्त्र में स्पष्ट कहा है कि "जिनाज्ञा बाहर कदापि धर्म नहीं है।" कुछ प्रश्नोत्तर गणि मूलचन्दजी पूछते हैं - "गुरुदेव ! आपका यह सब कथन सत्य है, पर जिनाज्ञा का बोध होना दुर्लभ है। जिसको बोध हुआ है, उसको मेरी त्रिकाल वन्दना-नमस्कार हो । मेरी बुद्धि तो अल्प है, जैसे ज्ञानी कहे वैसे प्रमाण है। पर जो कोई अपनी खोटी, अयोग्य, विपरित युक्तियाँ लगाकर अपने मत-कदाग्रह को स्थापन करता है, सिद्धान्त का अपलाप करता है; उसे समकिती कैसे माना जावे? इस बात का तो बद्धिमानों को अवश्य विचार करना चाहिये । पर यह तो बतलाइये कि (१) वन्दना-सत्कार किसका करना चाहिये और किसका नहीं करना चाहिये? उत्तर - मूला ! जिसका व्यवहार शुद्ध हो उसको वन्दनासत्कार करना चाहिये । अशुद्ध व्यवहारवाले को नहीं। पर किसी से दृष्टिराग या वैर-विरोध करना उचित नहीं। सबसे मैत्रीभाव रखना चाहिये। जो हित-शिक्षा माने उसे वीतराग की आज्ञा-संयुक्त हितशिक्षा देनी योग्य है। जो न माने तो यह जान कर कि यह व्यक्ति अयोग्य है, वहाँ मौन रहे । ऐसे व्यक्ति को शिक्षा देना उचित नहीं है। जो कदाग्रही है, आत्मार्थी नहीं है, उसके साथ धर्म-चर्चा अथवा Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [169]]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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