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________________ मनोव्यथा १६७ द्वारा रचित महानिशीथसूत्र, गच्छाचार- पयन्ना तथा अन्य सूत्रों के पाठ देखने से तो उन लोगों की उपर्युक्त आचरणा आगम-शास्त्रविरुद्ध दिखलाई देती है। अपने को गच्छ मानते हैं, दूसरे को मत कहते हैं और उसकी ओट में ऐसे पासत्थों, शिथिलाचारियों को वन्दना आदि करते हैं, उनसे शास्त्रादि सुनते हैं और गुरु मानते हैं। यह आश्चर्य (अच्छेरा) है I ऐसे लोग प्राय: यह भी कहते हैं कि "पक्षपात में कुछ लाभ नहीं है, राग-द्वेष बढता है। शुद्ध देव, गुरु, धर्म की सेवा करना योग्य है और कुदेव, कुगुरु, कुधर्म का त्याग कर देना चाहिये । जिसने साधु का वेष ले लिया है, उसे गुरु मान कर अवश्य चलना चाहिये ।" पर जो लोग पाँच महाव्रतों को उचार कर साधु का वेष धारण तो कर लेते हैं और आगम शास्त्रों में बतलाये हुए साधु के आचार को पालन न करके उपर्युक्त अनाचार - भ्रष्टाचार सेवन करते हैं, उन्हें सद्गुरु कैसे माना जावे एवं उनके द्वारा प्ररूपित धर्म को सुधर्म मानना कहाँ तक उचित है, विचक्षण महानुभाव इस पर पक्षपात रहित होकर विचार करें। यदि मोहनीयकर्मवश जीवों को विचार न आवे तो दोष किसका ? अन्धे को दर्पण अथवा चिराग दिखलाने से कोई लाभ नहीं हैं। पर कई लोग ऐसे भी हैं कि इस शिथिलाचार सडे को जानते-समझते हुए भी अनादि काल के मिथ्यात्व के उदय से गच्छमत के राग के कारण अथवा स्वार्थवश कृष्णपक्ष (अंधकार) में डूबे हुए हैं जिसको ओमदृष्टि घनी (बहुत) है 1 १. देखें पूज्य बूटेरायजी महाराज द्वारा रचित 'मुखपत्ती विषय चर्चा' नामक पुस्तक । Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [167]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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