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________________ १६६ सद्धर्मसंरक्षक गुरु मानते हैं। क्या इसे अच्छेरा कहना चाहिये या नहीं ? हाथकंगन को आरसी का क्या काम ? यह तो आंखोंवालों को प्रत्यक्ष दिखलाई दे रहा है । अंधे को न दिखलाई दे, वह तो आंखें न होने के कारण लाचार हैं । पर जो सूत्र - अर्थ पढा है, साधु के पाँच महाव्रत धारण कर दीक्षित हुआ है, शुद्धाशुद्ध मार्ग को समझता है और अपने आगम के प्रतिकूल आचरण को, अनाचार और शिथिलता को ढाँपने के लिये यदि वह मुग्ध (भोले) जीवों को अपने फंदे में फँसाने के लिये यह कहता है कि मेरा तो गच्छ और मत एक है और यही सच्चा है, जो मेरे जैसा आचरण नहीं करते वे अन्य गच्छ के हैं। अन्य संघाडे के अथवा अन्य संप्रदाय के हैं । तो क्या तीर्थंकर भगवन्तों ने ऐसा कहा है कि "तपागच्छ, खरतरगच्छ अथवा कोई अन्य गच्छमत- संप्रदाय शुद्ध होगा और अमुक गच्छ-संप्रदाय अशुद्ध होगा ?" पर प्रभु ने ऐसा तो कही नहीं कहा । ऐसा प्रभु ने आगमों में कहीं नहीं कहा कि अमुक (नाम लेकर) गच्छ, संघाडा, आम्नाय, संप्रदाय तो शुद्ध है और दूसरा शुद्ध नहीं है। ऐसी प्ररूपणा केवली, चौदह - पूर्वधर, दस - पूर्वधर ने कहीं की हो तो बताओ । अपने-अपने शिथिलाचार, भ्रष्टाचार की पुष्टि के लिये सूत्रों और उनके अर्थों को तोडमरोड कर रख देने से तो जीव अनन्त संसारी होता है, स्वयं भी डूबता है और उस पर श्रद्धा रखनेवाले, उनके सम्पर्क में आनेवाले अज्ञानी, मुग्ध, भोले-भाले जीवों को भी डुबाता है। नदी में रहनेवाली छिद्रोंवाली नौका स्वयं भी डूबती है और उसमें बैठ कर तिरने के इच्छुक भी डूब जाते हैं। आगे केवली, श्रुतकेवली दसपूर्वधर जो फरमावें वह हमें प्रमाण है । पर महापुरुषों Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [166]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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