SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाएंगे। मैं यात्री नहीं हूं, मैं अतिथि नहीं हूं, आतिथेय हूं; मैं होस्ट हूं, गेस्ट नहीं। वे जो गेस्ट आए हैं, चले जाएंगे; मैं तो उनका मेजबान हूं। अतिथि में और आतिथ्य में फर्क कर लेना आत्म-ज्ञान है। अतिथि में, आतिथेय में; गेस्ट में और होस्ट में फर्क कर लेना आत्म-ज्ञान है। जो बाहर से आया, वह अतिथि है। उसे मैं जानूं, देखू, परिचित होऊं और होश रखू कि वह मैं नहीं हूं। और अगर...इसको महावीर ने भेद-विज्ञान कहा, इस भेद का विज्ञान। इस भेद को धीरे-धीरे थिर करना, इस भेद में स्थित होना। धीरे-धीरे जिसको मैं अतिथि जानूंगा, उससे झगड़ने का कोई कारण नहीं है, जानना पर्याप्त है। जान लें, यह मेरा नहीं, मेरे भीतर से नहीं आया। आए, चला जाए; मैं दर्शक बना रहूं, मैं तटस्थ द्रष्टा रह जाऊं। धीरे-धीरे यह तटस्थ द्रष्टा का बोध, यह सम्यक द्रष्टा का बोध पर को विसर्जित कर देगा, पर को विलीन कर देगा। दृश्य विलीन होते चले जाएंगे, स्वप्न गिरते चले जाएंगे और एक दिन अचानक, अनायास जहां जगत दिखता था, वहां शून्य खड़ा रह जाएगा। जैसे अचानक प्रोजेक्टर बंद हो गया हो, पीछे फिल्म को बनाने वाली मशीन, चलाने वाली मशीन बंद हो गई हो; पर्दा खाली रह जाए, चित्र न हों, सफेद; वैसे ही किसी दिन धीरे-धीरे सामायिक के इस प्रयोग के, तटस्थ द्रष्टा के इस प्रयोग के माध्यम से प्रोजेक्टर बंद हो जाएगा। सामने जगत विलीन, कोरा आकाश रह जाएगा-शून्य। इस शून्य की परिपूर्ण स्थिति को महावीर ने शुक्ल-ध्यान कहा है। जिस क्षण कुछ भी न रह गया, दृश्य सब शून्य हो गया, उसी क्षण–तत्क्षण ज्यादा ठीक हो कहना–ठीक उसी क्षण, जैसे ही वहां शून्य हुआ, जो सबको देखता था, वह अपने पर लौट आता है। जो दूसरों के घरों पर उड़ता फिरा, जिसने दूसरों के डेरों को अपना आधार बनाया, जो दूसरी भूमियों में विचरण किया, कोई आधार न पाकर, निराधार शून्य में छूट कर-और शून्य में कुछ भी नहीं रह सकता है-शून्य में आधार न पाकर स्व-आधारित हो जाता है, स्वयं प्रतिष्ठित हो जाता है, स्वयं में लौट आता है। आत्मा आत्मा पर लौट आती है। इस क्षण दिखता है अमृत, जिसकी कोई मृत्यु नहीं। इस क्षण दिखता है, जिसमें कोई भय की संभावना नहीं। जैसे गीता में उन्होंने कहा है: न हन्यते हन्यमाने शरीरे–जो, शरीर मर जाएगा, तब भी नहीं मरेगा। जिसे चिता की लपटें नहीं जला सकतीं, जिसे कुछ भी नष्ट और विकृत नहीं कर सकता-अच्युत, शाश्वत, नित्य-उसके जब दर्शन होंगे, अनायास, सहज। इस दर्शन के कारण जीवन अहिंसक हो जाता है। इस दर्शन के कारण जीवन में अहिंसा फैल जाती है। इसके अतिरिक्त और अहिंसा तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है। आत्म-ज्ञान है मार्ग अहिंसा का।। और अगर विश्व को बचा लेना है, और अगर मनुष्य को कोई भविष्य और नियति देनी है, तो एक-एक व्यक्ति तक आत्म-ज्ञान की इस वैज्ञानिक प्रक्रिया को पहुंचा देना जरूरी है। महावीर को, उनके विचार को घेरों को तोड़ कर सब तक पहुंचा देना जरूरी है। महावीर अहिंसक होने को नहीं कह रहे हैं, महावीर आत्म-ज्ञानी होने को कह रहे हैं-अहिंसा तो अपने से चली आएगी। आत्म-ज्ञान जागे, लोग अपने को जानें, अमृत को पहचानें, नित्य को पहचानें, 67
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy