SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है भ्रामक, हो सकता है मृग-मरीचिका, देखने वाला मृग-मरीचिका नहीं हो सकता है। द्रष्टा एकमात्र सत्य है जीवन के केंद्र पर खड़ा हुआ, जो देख रहा है। लेकिन उस देखने की क्षमता पर से घिरी हुई है। उस देखने के सामने पर खड़ा हुआ है, विजातीय खड़ा हुआ है। अगर मैं पर को अलग कर दूं देखने की क्षमता के सामने से, अगर द्रष्टा के सामने से पर को अलग कर दूं, तो देखने की क्षमता जो पर को देखती थी, पर को न पाकर, पर के आलंबन के आधार को न पाकर स्व आधार पर लौट आती है। अगर बाहर कुछ देखने को न रह जाए, तो जो सब को देखता था, स्वयं को देख लेता है। द्रष्टा के सामने से पर का विसर्जन ध्यान है, सामायिक है। द्रष्टा के सामने से पर का विसर्जन, पर का अलग कर देना, पर का हटा देना, स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाना है। आंख खोलता हूं, आपको देख रहा हूं। आंख बंद कर लूंगा तो भी आपको देगा। आपके चित्र, आपके प्रतिबिंब, आपकी स्मृतियां घूमेंगी। आंख खोलता हूं तो बाहर हूं, आंख बंद करता हूं तो भी बाहर हूं। बाहर से बने हुए चित्र, बाहर से बने हुए इम्प्रेशंस, बाहर से आए हुए संस्कार फिर मुझे घेरे रहते हैं। अभी वास्तविक वस्तुएं घेरी हैं, फिर आंख बंद करता हूं तो वस्तुओं के विचार घेरे रहते हैं, लेकिन बाहर ही हं। आंख खोल कर भी, आंख बंद करके भी! यह मेरा निरंतर बाहर होना मेरा बंधन है। थोड़ी देर को वस्तुओं से आंख बंद की, विचार से भी आंख बंद कर लेनी है। इसको महावीर ने निर्जरा कहा है। जो बाहर से मुझ पर आया है-जो भी बाहर से मुझ पर आया है, उसी विजातीय ने मुझको घेरे में बंद किया, आबद्ध किया। उस बाहर से आए हुए प्रभाव को विसर्जित कर देना निर्जरा है। बाहर का बाहर छोड़ देना, और भीतर वही बच जाए जो बाहर से नहीं आया- तत्क्षण, उसी क्षण कुछ दिखेगा, जो सब बदल जाता है, सब परिवर्तित कर जाता है। कुछ नये आयाम में, नये डाइमेन्शन में, नई भूमि में उठना हो जाता है। महावीर की यह वैज्ञानिक धारणा निर्जरा की अदभुत है। और वही है मार्ग। वही है मार्ग, वही है योग, वही है सब कुछ, वही है विज्ञान, वही है प्रयोगशाला व्यक्ति की अपने में जाने की। स्मरण करें, कुछ भी है हमारे मन में जो बाहर से न आया हो? कुछ भी है हमारे चित्त में जो बाहर का प्रतिफलन न हो? कुछ भी है ऐसी चीज जो बाहर की धूल की तरह हम पर नहीं जम गया है? जो भी बाहर से आया हो, उस पर आंख बंद कर लेनी है। उसे देखना है, लेकिन जानना है कि वह पर है और बाहर से आया है, और वह मैं नहीं हूं। अगर व्यक्ति अपने भीतर थोड़ी देर भी बैठ कर सिर्फ इस विवेक को जाग्रत करता रहे कि क्या बाहर से आया है, वह मैं नहीं हूं। सिर्फ इस होश को भीतर पैदा करता रहे कि यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। निषेध करता चले उस क्षण तक, जब तक बाहर से आया हुआ कुछ भी डोलता हो चित्त में। और हैरान होगा, मैं उसे अपना मान लेता था, इसलिए वह आता था। वे बाहर से आए हुए संस्कार इसलिए ठहर जाते थे, मैं उन्हें अपना मान कर ठहरा लेता था इसलिए। जिस क्षण मैंने उनके साथ यह जाना कि वे मेरे नहीं, वे बाहर से आए हुए यात्री हैं; आएंगे और चले 66
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy