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________________ प्रबुद्ध को पहचानें; उसको, जो कभी बंधन में नहीं गिरा, उस मुक्त को पहचानें, तो हम सारे जगत को एक नई मनुष्यता में परिवर्तित कर सकते हैं। अणु का उत्तर आत्मा है, विज्ञान का उत्तर धर्म है। फैले हुए विकृति और विकार का उत्तर संस्कृति है। केवल आत्म-ज्ञानी संस्कृत होता है। अज्ञानी प्रकृत होता है। और अज्ञानी अगर अज्ञान में तृप्त हो जाए तो विकृत हो जाता है । अज्ञानी प्रकृत होता है। और अगर अज्ञानी ऊपर उठने की आकांक्षा भी छोड़ दे ज्ञान तक तो विकृत हो जाता है। और अगर ऊपर उठने की आकांक्षा से भरे, संस्कृत होता चलता है । जिस दिन भीतर परिपूर्ण आत्म-ज्ञान उदय होता है, उसी दिन व्यक्ति सुसंस्कृत होता है। जगत को संस्कृति देनी है । और संस्कृति तो हिंसक नहीं हो सकती, केवल विकृति हिंसक हो सकती है। जगत को संस्कृति देनी है, तो आत्म-ज्ञान की आकांक्षा देनी जरूरी है, प्यास को जगाना जरूरी है। एक-एक आदमी के भीतर जो सोया है, वह जो प्रदीप्त हो सकता है, लेकिन प्रसुप्त है; वह जो जाग सकता है, लेकिन सोया है, नींद में है; वह जो अमूर्च्छित, अप्रमत्त हो सकता है, लेकिन मूर्च्छित और बेहोश में है - उसे पुकारना जरूरी है। एक-एक व्यक्ति के भीतर पुकार देनी जरूरी है कि जागो और जगाओ अपने को। तुम्हारा जागरण सारे जगत की रक्षा हो सकता है। एक-एक व्यक्ति का जागरण सारे जगत की रक्षा हो सकता है। एक-एक व्यक्ति का अपने में प्रतिष्ठित हो जाना विश्व की विकृति के संस्कृति में बदलने का मार्ग बन सकता है। ये थोड़ी सी बातें मैं कहा हूं। बहुत प्रीति से, आनंद से आपकी आंखों को देख रहा हूं, पहचान रहा हूं। बहुत प्यार से इन बातों को सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में एक ही प्रार्थना करता हूं : जगाएं, अपने भीतर पुकारें उसको, जो सोया है। अगर वह महावीर में जग सका, बुद्ध में जग सका, कोई कारण नहीं है कि हमारे भीतर नहीं जगेगा। ठीक ऐसे ही हड्डी - मांस के लोग वे थे। ठीक इन्हीं विकृतियों, इन्हीं सीमाओं में घिरे हुए, जो हमारी हैं। अगर वे जाग सके, तो अपमान है हमारा कि हम न जाग सकें ! तिरस्कार है हमारा, अगर हम न जाग सकें! अगर एक भी मनुष्य कभी जागा है, प्रत्येक दूसरा मनुष्य जाग सकता है। क्यों न वह दूसरा मनुष्य मैं हो जाऊं ? यही प्रार्थना है, वह दूसरा मनुष्य होने का प्रत्येक प्रयास करे, प्रत्येक आकांक्षा से भरे, प्रत्येक अतृप्त हो जाए, प्यास से पुकारे अपने भीतर – निश्चित जागरण हो सकता है। इस प्रार्थना के साथ अपनी बात को पूरा करता हूं और आप सबके भीतर बैठे हुए उस सोए हुए को प्रणाम करता हूं, जो जाग जाए तो प्रभु हो सकता है, और सो जाए तो पशु हो सकता है। मेरे प्रणाम स्वीकार करें। 68
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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