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________________ जिसकी आंखों में आकाश के जैसी नीली शांति थी। जिसके नक्श में, जिसकी रेखा-रेखा में कुछ था अलौकिक, संवेदित, जिसको देख कर लगता था कि मनुष्य के ऊपर का कुछ प्रकट हुआ । उसने उसके चित्र को बनाया। चित्र बना, पूरा हुआ, लाखों प्रतिलिपियां बिकी। गांव-गांव, उसके देश के गांव-गांव में पहुंच गया, प्रतिष्ठित हुआ, आदृत हुआ । बहुत हुई थी प्रशंसा। बीस वर्ष बाद उस चित्रकार ने दूसरा चित्र बनाना चाहा था, मनुष्य के भीतर जो पशु उसका । सोचा था, यूं मनुष्य की तस्वीर पूरी हो जाएगी इन दो चित्रों में गया था खोजने वेश्यालयों में, कारागृहों में, पागलखानों में। और खोज लिया था आखिर एक कारागृह में एक व्यक्ति को, जिसकी आंख तो आदमी की थी, लेकिन जो झांकता था भीतर से, वह पशु था । जिसका चेहरा तो आदमी का था, लेकिन पारदर्शी था चेहरा और पीछे कोई खूंखार बैठा हुआ था । चित्र को बनाया। दूसरा चित्र भी बन कर जिस दिन पूरा हुआ था, एक घटना घटी बहुमूल्य, स्मरणीय । अपने पुराने चित्र को लेकर गया था कारागृह में, दोनों को रख कर करीब यह देखने, कौन सी कृति श्रेष्ठ बनी है ! मंत्रमुग्ध होकर देख रहा था, तय करना मुश्किल था, कौन सा चित्र ठीक बना! तभी पीछे कैदी रोने लगा था, जिसका चित्र उसने दूसरा बनाया था। लौट कर देखा था। कहा, मित्र! मेरे चित्रों से तुम्हें दुख का कारण ? तुम्हारे आंसू का कारण ? तुम क्यों रोते हो ? उस कैदी ने कहा, इतने दिन कितनी मुश्किल से अपने भाव को छिपाया, आज मुश्किल हो गया। पहला चित्र भी मेरा ही चित्र है। बीस वर्ष पहले मेरे ही चेहरे और आंखों को देख कर पहला चित्र बनाया था। दोनों चित्र मेरे हैं, इसलिए रोता हूं। कहानी बहुत काल्पनिक सी लगती है, काल्पनिक नहीं है । और काल्पनिक भी हो तो भी प्रत्येक व्यक्ति के संबंध में सत्य है । ये चित्र उस आदमी के ही नहीं थे दोनों, ये हमारे भी दोनों हैं। ये प्रत्येक के दोनों हैं। जो भी आदमी इस जमीन पर है, उसके भीतर दोनों छिपे हैं। उसके भीतर दोनों विराजमान हैं। उसके भीतर दोनों के बीच निरंतर संघर्ष, निरंतर दोनों किनारों के बीच आदमी टकराता रहता है। अगर कभी देखना, कभी विचार करना, कभी होश से भरना, घड़ी भर पहले तुम्हारे भीतर हो सकता है प्रभु रहा हो, घड़ी भर बाद हो सकता है कि पशु विराजमान है। कितनी तीव्रता से हम इन दोनों तटों के बीच घूमते रहते हैं ! और अगर प्रभु की धारणा ही विलीन हो जाए, आत्मिक जीवन में बैठने की, उठने की आकांक्षा विलीन हो जाए, तो फिर हम पशु के तट पर लगे रह जाते हैं। हमारी नौका वहीं लगी रह जाती है । फिर स्वाभाविक है, जब कि एक-एक आदमी के भीतर का पशु ही केवल प्रवृत्तिमान होता हो, जब कि पशु को तृप्त करना ही जीवन रह गया हो, तो स्वाभाविक है कि ढाई अरब पशुओं का इकट्ठा संघर्षण, ढाई अरब पशुओं की इकट्ठी विकृत आकांक्षाएं सारी संस्कृति की मृत्यु बन जाएं। कहां हम स्वप्न देखे थे मनुष्य के भीतर परम शक्ति के जागरण का और कहां निकृष्ट को उपलब्ध करके बैठ गए हैं! कहां बुद्ध, कहां महावीर, कहां क्राइस्ट, जो कहते हैं, तुम्हारे भीतर परमात्मा विराजमान है! और कहां हम, जो भीतर झांक कर देखते हैं तो सिवाय पशु की आहट के, उसके चलने के कुछ भी वहां नहीं पाते ! 59
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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