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________________ मेरा मानना है, अहिंसा ऊपर से शिक्षित नहीं की जा सकती। हिंसा हमारे पशु की प्रकृति का सहज परिणाम है। जब तक हम पशु के तट से बंधे हैं, तब तक सहज परिणाम हिंसा होगी। लाख चेष्टा ऊपर से आरोपित करने की व्यर्थ है । अहिंसा का अभिनय हो सकेगा, अहिंसक नहीं हुआ जा सकता। अहिंसक होना हो, क्रियाएं नहीं बदलनी हैं, भीतर चैतन्य का तट बदलना होगा। लाख उपाय करें, उसी तट पर बंधे हुए कहीं पहुंचना न होगा। सुनता था, एक साधु नदी पर नहाने उतरा था। सुबह भोर होने के करीब थी और थोड़ाथोड़ा प्रकाश हो गया था। सूरज निकलने के करीब था, प्राची लाल हो गई थी। देखा उस पार उसने, चार व्यक्ति एक नाव में बैठ कर जोर से डांड चला रहे हैं। नाव वहीं की वहीं खड़ी है, डांड चलाए जा रहे हैं। वह तैर कर पास गया, देखा, नाव की जंजीर तट से बंधी थी ! उसने पूछा, मित्र कहां जा रहे हो ? वे चारों नशे में थे और रात नशे में आकर नाव चलाना शुरू कर दिए थे। रात भर इस खयाल में रहे कि बहुत यात्रा हो रही है । उस साधु ने उनसे कहा, पागल हो ! यह तो देख लेते पहले कि नाव तट से छोड़ी भी या नहीं ? जंजीर तो वहीं बंध है, तो डांड खेने से कुछ भी न होगा ! ऊपर सारे कर्म अहिंसक होने के, उन नशेखोर नाविकों जैसे हैं। भीतर उस तट से जंजीर छूटी या नहीं ? और जंजीर छूट जाए, भीतर तट परिवर्तित हो जाए, भीतर चैतन्य का केंद्र परिवर्तित हो जाए, तो जैसा पशु के तट से बंधे हुए हिंसा सहज बाहर निकलती है, आचरण हिंसक हो जाता है, वैसे ही तट - परिवर्तन से, चेतना के परिवर्तन से अहिंसा सहज निकलती है। महावीर ने कहा है- अदभुत परिभाषा की है अहिंसा की - कहा है, स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना अहिंसा है। अहिंसा का कोई संबंध ही दूसरे से नहीं है। जो कहते हैं, दूसरे को दुख न देना अहिंसा है, नासमझ हैं। दूसरे से कोई वास्ता अहिंसा का नहीं । स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना अहिंसा है, स्वरूप के बाहर होना हिंसा है। जो स्वरूप के बाहर है, कुछ भी करे - कुछ भी करे, सबमें हिंसा प्रवाहित होगी। जो स्वरूप में प्रतिष्ठित है, कुछ भी करे, सबमें अहिंसा प्रवाहित होगी। अहिंसा क्रिया का परिवर्तन नहीं, डूइंग का परिवर्तन नहीं, बीइंग का, सत्ता का, होने का परिवर्तन है । जिसकी सत्ता परिवर्तित होगी और तट बदल जाएगा, उसके जीवन में सहज, सहज अहिंसा प्रतिफलित हो जाती है। अहिंसा साधना नहीं है । कोई अहिंसा को साध नहीं सकता। साधना आत्म-ज्ञान को पड़ता है। अहिंसा अपने आप चली आती है, जैसे पौधों में फूल चले आते हैं। अहिंसा सहज परिणाम है, कांसीक्वेंस है, साधना नहीं है। अहिंसा परम धर्म का अर्थ यही है कि जब जीवन में आत्म-ज्ञान उपलब्ध होता है अंतिम परिणति में, परम धर्म की तरह, परम विकास, विकसित फूल की तरह अहिंसा आ जाती है । अहिंसा को लाना नहीं होता, अहिंसा आती है। लाना होता है स्व-स्थिति को लाना होता है स्व-स्थिति को । अहिंसा के संबंध में सबसे भ्रांत जो धारणा व्यापक है, वह यह है कि हम अहिंसा को एक नैतिक उपकरण, एक नैतिक साधना समझते हैं। अहिंसा नैतिक साधना नहीं है । और नैतिक साधक की अहिंसा में और महावीर की अहिंसा में जमीन-आसमान का अंतर है। नैतिक साधक 60
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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