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________________ और यह हमारे हाथ में है, यह हमारे संकल्प पर निर्भर है कि यह प्रवाह क्या दिशा ले। पिछली कुछ सदियों ने मनुष्य की श्रेष्ठतम दिशा को खंडित कर दिया है। सारे पुराने प्रतिमान, सारी पुरानी प्रतिमाएं खंडित हो गई हैं। हम बहुत मूर्ति-भंजक हैं। मंदिरों की मूर्तियां टूट जाएं, कुछ नुकसान नहीं होगा। मनुष्य के जीवन की वह प्रतिमा, जिसे उसे पाना है, टूट जाए तो जीवन नष्ट हो जाएगा। हम इस अर्थ में मूर्ति-भंजक हैं। हमने सारी पुरानी प्रतिमाएं तोड़ दी, जो हम होने की आकांक्षा करते थे। महावीर और बुद्ध और राम, वे सारी प्रतिमाएं हमारी आंखों से हट गई हैं। हम जो हैं, उस पर तृप्त हो गए हैं। जो तृप्त हो जाएगा, मर जाएगा। जो तृप्त हो जाएगा और समझ लेगा हम जो हैं, काफी हैं, और ऊपर उठने की आकांक्षा और प्यास जहां विलीन हो गई, वहीं मृत्यु है। पिछले दो-तीन सौ वर्षों में हम निरंतर मरते चले गए हैं। मनुष्य मनुष्य होने से तृप्त हो गया है। मनुष्य का मनुष्य से तृप्त हो जाना ही उसकी भूल और भ्रांति है। इस सदी का सारा दुख यह है, इस सदी की सारी विकृति इससे पैदा हुई है, मनुष्य मनुष्य होने से तृप्त हो गया है। मैं आपको तृप्त हुआ नहीं देखना चाहता। मैं किसी को नहीं कहता, तृप्त हो जाओ, संतुष्ट हो जाओ। मैं कहता हूं, जलने दो अतृप्ति की आग। मनुष्य से तृप्त मत होना। और बड़े आश्चर्य का नियम यह है, इस जगत में कुछ भी थिर नहीं है। जो आगे बढ़ने से रुक जाएगा, वह रुका नहीं रहेगा, प्रवाह उसे पीछे फेंक देता है। जो आगे नहीं बढ़ रहा है, वह पीछे सरकता चला जाएगा। इस जगत में थिर कुछ नहीं है। जेम्स जीन्स ने एक बात कही थी, कि मैंने सारे शब्दकोश के अध्ययन के बाद अनुभव किया : रेस्ट, टिकाव, ठहराव, थिरता, इस शब्द की वास्तविकता जगत में कहीं भी नहीं है। कहीं कोई चीज थिर नहीं है। जो विकासमान नहीं है. ह्रासमान हो जाएगा। जो आगे नहीं बढ़ रहा है, पीछे हट जाएगा। ठहर नहीं सकते हैं। जिस दिन हमने मनुष्य के ऊपर भावी प्रतिमाओं को अलग कर दिया, जिस दिन मनुष्य के भीतर आदर्श को विसर्जित कर दिया, जिस दिन हमारे भीतर वह आकांक्षा, जो प्रत्येक को महावीर, बुद्ध और क्राइस्ट बनाना चाहती थी, विलीन हो गई, धूमिल हो गई, उसी दिन हम पशु की तरफ पीछे हटने शुरू हो गए। प्रभु की प्रतिमा हटेगी आंख से, अनिवार्यतया पशु की प्रतिमा उसकी जगह प्रतिष्ठित हो जाती है। ईश्वर को छोड़ने से कुछ हर्ज न था, लेकिन मंदिर रिक्त नहीं रहता। जिस सिंहासन पर से ईश्वर को उतार लिया, वहां कब रात के अंधेरे में पशु बैठ गया, इसका पता नहीं पड़ता है। मैं इससे दुखी नहीं हूं कि हम ईश्वर को अस्वीकार कर दें-कर दें, लेकिन यह तो स्मरण रखें कि सिंहासन पर फिर कौन विराजमान हो गया है। और हमारे पूजा करने वाले हाथ, जो बहुत पुराने आदी हैं, अंधे की तरह पशु की पूजा में संलग्न हो गए हैं! ईश्वर को अस्वीकार केवल वही कर सकता है, जो ईश्वर के जैसा हो, उसके पहले नहीं। धर्म को अस्वीकार वही कर सकता है, जो धर्म को उपलब्ध हो जाए, उसके पहले नहीं। अन्यथा विपरीत प्रतिष्ठित हो जाता है। मनुष्य के भीतर दोनों हैं- मनुष्य के भीतर दोनों हैं। एक कहानी कहूं। पढ़ता था एक चित्रकार के बाबत। एक चित्र उसने बनाना चाहा था मनुष्य के भीतर दिव्य का, डिवाइन का। गया था खोज में। खोज लिया था एक व्यक्ति को, 58
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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