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________________ सच, आप कभी चित्र देखते हों, कभी फिल्म देखते हों, कभी नाटक देखते हों, एक अदभुत बात अनुभव होगी : फिल्म देखते-देखते आप इतने तल्लीन हो जाएंगे कि आपको यह पता नहीं रहेगा कि आप भी हैं। जब पर्दा वहां खाली होगा, तब अचानक आपको चौंक कर पता पड़ेगा, दो घंटे बीत गए; हम भी थे, इसका पता न रहा! एक चित्र में, एक कथा में हम भी एक पात्र हो गए थे। क्या कई दफा अनुभव नहीं हुआ कि उन पात्रों के साथ आप रोने लगे हैं और उन पात्रों के साथ आप हंसने लगे हैं? क्या पर्दा जब खाली हो गया और लोग उठने लगे तो आपने अनेक बार अपने आंसू नहीं छिपा लिए हैं कि पड़ोस का आदमी न देख ले कि चित्र देख कर रोते थे? लेकिन चित्र को देख कर आप रोते थे, बड़ी हैरानी की बात है। चित्र इतने प्रभावी हैं कि उनसे आप रोते हैं और हंसते हैं? और जानते हैं भलीभांति कि वहां पर्दे के सिवाय कुछ भी नहीं है! भलीभांति जानते हैं, खुद ही पैसे दिए हैं, भलीभांति पता है कि वहां सफेद पर्दे के सिवाय कुछ भी नहीं है। और पीछे से केवल विद्युत की किरणें फेंक कर चित्रों का भ्रम हो रहा है, चित्र भी वहां नहीं हैं। लेकिन फिर भी रोते हैं और हंस लेते हैं। चित्र का बड़ा प्रभाव है। चित्र का प्रभाव ही अजान है। चित्र के प्रभाव से मक्त होना जान है। वह रोज-रोज आप फिल्म देखने न जाते हों, लेकिन चौबीस घंटे मन के पर्दे पर फिल्में चल रही हैं। आप अपने ही बनाए हुए सिनेमा-गृह में रोज-रोज बैठे हुए हैं-चौबीस घंटे! मजा यह है कि वहां आप ही तो पात्र हैं, आप ही देखने वाले, आप ही नाटक खड़ा करने वाले, आप ही प्रोजेक्टर, आप ही पर्दा, वहां आपके सिवाय कोई भी नहीं है। इसलिए महावीर ने कहा, आत्मा ही बंधन है, आत्मा ही मोक्ष है। वह सारा बंधन आपका ही बनाया हुआ है। आपकी ही कल्पना-प्रसूत, आपकी ही इमेजिनेशन का खेल है। वह आप सारा बनाए हुए हैं। महावीर उस पूरी साधना में उन चित्रों को पोंछ कर पर्दे को सफेद करने में लगे हैं कि ऐसी घड़ी आ जाए कि पर्दा सफेद हो जाए। पर्दे के सफेद होते ही एकदम याद आएगा, अरे! मैं भी हूं। और मैं चित्रों में भूल गया था। एक दफा चित्त शून्य हो जाए, आत्म-ज्ञान शुरू हो जाएगा। वहां चित्त शून्य हुआ, यहां आत्म-ज्ञान का उदभावन, जागरण शुरू हुआ। महावीर की साधना चित्त को शून्य करके, चित्रों से मुक्त होकर, उसको जानने की है, जिसका नाम चैतन्य है। जो चित्रों को जानेगा, वह चैतन्य को नहीं जानेगा। जो चित्रों को विलीन कर देगा, वह चैतन्य का अनुभव करता है। उसका ज्ञाता बनता है। उस ज्ञान का उसे बोध होता है। इस बोध का, इस आत्म-दर्शन का महावीर की संपूर्ण साधना में केंद्रीय स्थल है। लोग समझते हैं, महावीर की साधना अहिंसा की है। नहीं। लोग समझते हैं. महावीर की साधना ब्रह्मचर्य की है। नहीं! लोग समझते हैं, महावीर की साधना सत्य की है। नहीं! महावीर की साधना आत्मा की है। और आत्म-अनुभव के परिणाम में सत्य, ब्रह्मचर्य, अहिंसा उपलब्ध होते हैं। यह आत्म-अनुभूति के फूल हैं। जो आत्म को जानता है, वह असत्य से उसी क्षण मुक्त हो जाता है। जो आत्म को जानता है, अब्रह्मचर्य से मुक्त हो जाता है। जो आत्म को जानता है, वह हिंसा से मुक्त हो जाता है। आत्म-ज्ञान का परिणाम, उसके कांसिक्वेंसेस अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य में फलित होते हैं। लोग सोचते हैं, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और सत्य साधन हैं, जिनसे आत्मा उपलब्ध होगी! मैं विपरीत सोचता हूं। वे साधन नहीं हैं, साधन तो चित्त-विसर्जन है। 48
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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