SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं। और हमारी संकीर्ण वृत्ति और बुद्धि के कारण, जिस महापुरुष को हम देखने जाते हैं अपनी संकीर्ण खिड़की से, उसकी तस्वीर भी छोटी हो जाती हो तो आश्चर्य नहीं है।। जैनी मिल-जुल कर महावीर को छोटा करते हैं। ईसाई मिल कर जीसस को छोटा करते हैं। हिंदू मिल कर राम को छोटा करते हैं। मुसलमान मिल कर मोहम्मद को छोटा करते हैं। ये लोग इतने बड़े थे कि इस सारी पृथ्वी के हो सकते थे। लेकिन इनके अनुयायियों ने घेरे बना लिए और इनको छोटा कर दिया। ये थोड़े से लोगों की संपदा हो गए हैं! तीस लाख मुश्किल से जैन होंगे हिंदुस्तान में; महावीर तीस लाख जैनियों की संपदा हो गए! और वे इतने जोर से शोरगुल मचाते हैं कि दूसरा आदमी शंकित हो जाता है कि ये इनके भगवान हैं, ये इनके आदमी हैं, हमें क्या लेना-देना। महावीर से वंचित हो जाती है सारी मनष्यता। इसी भांति सारे महापुरुषों से सारी मनुष्यता वंचित हो गई। जो सब की संपदा होने चाहिए, वे कुछ लोगों की संपदा हो गए हैं और वे कुछ लोग बड़ी अकड़ से चिल्लाते हैं। वह अकड़ उनकी अपनी है, उसका महावीर से क्या लेना-देना? इसलिए मैं उनकी प्रशंसा में कुछ नहीं कहूंगा, क्योंकि आपकी प्रशंसा में कहने की कोई भी जरूरत नहीं, कोई भी हित नहीं, कोई भी फायदा नहीं। मैं तो कुछ बात जरूर कहना चाहूंगा, जिसमें आपकी प्रशंसा न हो, बल्कि महावीर की अंतस-चेतना को समझें तो आप सेल्फ-कंडेम्ड हो जाएं, आपको अपनी निंदा मालूम पड़े। क्योंकि जब किसी महापुरुष के पास किसी व्यक्ति को आत्म-निंदा अनुभव होती है, तो उस व्यक्ति के जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है। महापुरुष की प्रशंसा में अपनी प्रशंसा से तो कोई क्रांति शुरू नहीं होती, हम और जड़ हो जाते हैं। लेकिन महापुरुष के सान्निध्य में, उसके स्मरण में, उसके चित्र के सामने अगर हमारा चित्र बिलकुल छोटा, दयनीय, दीन-हीन दिखाई पड़ने लगे, ऐसा प्रतीत हो कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं और मनुष्य इतना बड़ा भी हो सकता है। अगर एक मनुष्य के भीतर इतनी महानता घट सकती है तो मैं बैठा-बैठा कहां जीवन गंवा रहा हूं! मेरे भीतर भी तो यह घटना घट सकती थी। महावीर एक-एक व्यक्ति के भीतर भी तो पैदा हो सकते हैं। एक बीज वृक्ष बन सकता है, तो हर बीज के लिए चुनौती हो गई कि वह वृक्ष बन कर दिखा दे। और अगर कोई बीज वृक्ष नहीं बन सकता, तो वृक्ष के सामने खड़ा होकर अपनी आत्म-निंदा अनुभव करे। अनुभव करे इस बात को कि मैं व्यर्थ खो रहा हूं; मैं भी वृक्ष हो सकता था और मेरे नीचे भी हजारों लोगों को छाया मिल सकती थी; मैं भी एक फलों से लदी हुई छाया का, विश्राम का स्थल बन सकता था, लेकिन मैं नहीं बन सका हूं। क्या महावीर के निकट पहुंच कर आपको ऐसा लगता है कि जो महावीर के भीतर हो सका, वह आपके भीतर नहीं हो पा रहा है? क्या आपको आत्म-ग्लानि अनुभव होती है? अगर होती है तो महावीर के जीवन से कुछ, महावीर की साधना से, महावीर की अंतस-चेतना से आपको कुछ किरणें मिल सकती हैं जो मार्गदर्शक हो जाएं। लेकिन नहीं, इसकी हमें फुर्सत कहां है? हम जय-जयकार में, महावीर के जय-जयकार में अपनी आत्म-ग्लानि को छिपा लेते हैं, भुला देते हैं, भूल जाते हैं कि यह प्रश्न आत्म-चिंतन का था। यह महावीर के समक्ष स्वयं को रख कर रिलेटिव, सापेक्ष रूप से सोचने का था कि मैं कहां और यह व्यक्ति कहां! 114
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy