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________________ वह नाचता हुआ वापस लौटा था। वह बुद्ध के पैरों में गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे तो रहस्य का सूत्र मिल गया। बुद्ध ने कहा, क्या हुआ? उसने कहा, जब मैं भीतर जाग कर देखता था तो पाता था, विचार विलीन हैं! जब मैं होश में होता था, विचार अनुपस्थित होते थे! जब मैं बेहोश होता था, विचार उपस्थित हो जाते थे! बुद्ध ने कहा, मूर्छा मन है, अमर्छा मन के पार ले जाती है। महावीर ने भी कहा है, प्रमत्त होना बंधन है, अप्रमत्त होना मुक्ति है। प्रमत्तता का अर्थ है : मूर्छा, बेहोशी-मन के प्रति, मन की क्रियाओं के प्रति। अप्रमत्तता का अर्थ है : जागरूकता, अवेयरनेस, होश। होश, जागरूकता के माध्यम से मन विसर्जित हो जाता है, चिंतन विसर्जित हो जाता है, विचार की लहरें खो जाती हैं। उनकी सुप्त स्थिति में उनसे जो आच्छादित था, वह उदघाटित हो जाता है। उसका उदघाटन मुक्ति है, उसका उदघाटन बंधन के बाहर पहुंच जाना है। उसके उदघाटन पर जीवन एक नये डाइमेन्शन में, एक नये आयाम में, एक नये क्षितिज में स्थापित हो जाता है। जिन्होंने उस मुक्त जीवन-क्षण को अनुभव किया है, वे अनंत आनंद के मालिक हो गए हैं। जिन्होंने उस मुक्त क्षण का अनुभव किया है, वे अनंत शांति के मालिक हो गए हैं। और उन सारे लोगों का आश्वासन है, जो भी व्यक्ति कभी भी अपने भीतर झांकेगा, वह प्रभु के इस अदभुत राज्य का मालिक हो सकता है। ___ यह आश्वासन प्रत्येक को है। कोई भी अपात्र नहीं है। जीवन के और संबंधों में एक की क्षमता कम होगी, दूसरे की ज्यादा होगी। आत्मिक जीवन में सबकी क्षमता समान है। कोई भी अपात्र नहीं हो सकता। आत्मिक जीवन में प्रत्येक की क्षमता समान है, केवल जागरण को पुकारने की, केवल अपने भीतर होश को जगाने की, केवल अपने भीतर प्यास को पैदा करने की बात है। जो ठीक से अपने भीतर थोड़े से जागरूकता के प्रयोग करेगा, वह ठीक संसार के बीच मुक्ति को अनुभव करेगा। ___ अंततः यह जो मैं कहा, यह किन्हीं विशिष्ट लोगों के लिए नहीं कहा है। यह हममें से प्रत्येक के लिए कहा है। जो हड्डी और मांस महावीर की देह को बनाते थे, वे ही हड्डी और मांस हमारी देह को बनाते हैं। जो चेतना उनकी उस देह के भीतर स्थापित थी, वही चेतना हमारी देह के भीतर भी स्थापित है। एक कण का भी अंतर नहीं है। एक कण का भी अंतर नहीं हो सकता है। फिर हमें अपमानित होना चाहिए। हम मंदिरों में पूजा करते हैं। हमें असल में महावीर, बुद्ध और ईसा को देख कर अपमानित होना चाहिए। हमें आत्म-निंदित होना चाहिए। उनकी श्रद्धा और आदर में कहीं हम अपने अपमान को तो नहीं छिपा लेते हैं। उन्हें देख कर हमारे भीतर कहीं अपमान नहीं होता! हमें ऐसा भी तो नहीं होता कि इस शरीर, इस चैतन्य को वे किस परम प्रभु तक पहुंचा दिए हैं! और हम? हम कहां उसे पशु के घेरे में घुमा रहे हैं। क्या हमारे भीतर अपमान नहीं सरकता? अगर मंदिर और उनमें विराजमान मूर्तियां हमें अपमानित नहीं करती हैं, तो मंदिर व्यर्थ हैं, वे मूर्तियां व्यर्थ हैं। हम श्रद्धा की गुहार में, और पूजा और अर्चना में, और उनके नाम के स्मरण में अपने आत्म-अपमान को भुला देते हैं! 104
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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