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________________ चकित हो गया कि जो संयोग है ! फिर यह मान वह श्राविका के घर जाकर भोजन करता था। देख कर हैरान भोजन उसे प्रिय थे, वे ही उसे परोसे गए थे। उसने सोचा, अजीब सा कि शायद यही भोजन बने होंगे, वह चुपचाप भोजन करने लगा। भोजन करता था कि उसे स्मरण आया, रोज तो भोजन के बाद घर में दो क्षण विश्राम करता था, आज तो भोजन के बाद दो मील दोपहरी में चलना है। वह श्राविका सामने पंखा झलती थी । उसने कहा, भंते! भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करेंगे तो अत्यंत अनुग्रह होगा । वह थोड़ा चौंका, सोचा क्या बात है! फिर याद आया, संयोग ही होगा कि मुझे भी उस वक्त विचार आया और उसे भी विचार आ गया। चटाई डाल दी गई, वह भोजन के बाद विश्राम के लिए लेटा । लेटते ही उसे याद आया कि आज अपना न तो कोई साया है, न अपनी कोई शय्या है । वह श्राविका निकट थी । उसने कहा, या भी किसी की नहीं, साया भी किसी का नहीं । भंते! अब संयोग होना कठिन था । वह उठ बैठा । उसने कहा, मैं हैरान हूं! क्या मेरे विचार पढ़ लिए जाते हैं? क्या मेरे विचार संक्रमित हो जाते हैं ? श्राविका ने कहा, ध्यान का, सतत जागरूकता का प्रयोग करते-करते पहले स्वयं के विचार दिखे, फिर स्वयं के विचार विसर्जित हो गए। अब तो मैं हैरान हूं, दूसरे के विचार भी दिखते हैं ! वह भिक्षु घबड़ा गया। वह बहुत परेशान है, उसके हाथ-पैर कंप गए। श्राविका ने कहा, क्या घबड़ाने की बात है ? लेकिन उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गईं। श्राविका ने कहा, इसमें परेशान होने की क्या बात है ? लेकिन वह भिक्षु तो वापस विदा लेकर चल पड़ा। उसने बुद्ध से जाकर कहा, मैं उस द्वार पर भिक्षा लेने नहीं जाऊंगा। बुद्ध ने कहा, कोई असम्मान हो गया? उस श्रोण ने कहा, असम्मान नहीं, पूरा सम्मान हुआ, बहुत प्रीतिकर सत्कार हुआ। लेकिन अब उस द्वार पर दुबारा नहीं जाऊंगा। वह श्राविका दूसरे के विचार पढ़ लेती है । और आज उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो वासना भी उठी । वह भी पढ़ ली गई होगी। उसने क्या सोचा होगा! कल उसी द्वार पर इस चेहरे को कैसे ले जाऊं ? किस भांति मैं उसके सामने खड़ा होऊंगा ? बुद्ध ने कहा, वहीं जाना होगा। जान कर तुझे भेजा है। तेरी साधना का अंग है वहां जाना। लेकिन तू होश से जाना। घबड़ा मत। अपने भीतर देखते हुए जाना कि क्या उठता है। डरना मत। जो भी वासनाएं उठें, देखते हुए जाना। विचार उठें, देखते हुए जाना। केवल देखते हुए जाना, कुछ मत करना। फिर लौट कर मुझे कहना । मजबूरी थी, श्रोण को वहीं जाना पड़ा। आज वह बहुत नये ढंग से गया। कल खोया हुआ गया था उसी मार्ग पर - तंद्रिल था, मूर्च्छित था, होश न था, विचार चलते थे मूर्च्छा में। और आज वह आंख गड़ाए हुए, जागरूक, साक्षी होकर देखता हुआ गया। एक-एक विचार के प्रति होश से भरा था, अलग था। वह हैरान हो गया । भीतर देखता था, तो सन्नाटा हो जाता था। भीतर से तंद्रा गहरी होती थी, तो बाहर देखता था, विचार का प्रवाह चलने लगता था । जब बाहर देखता, भीतर विचार चलने लगता। जब भीतर देखता, विचार शून्य हो जाता। वह सीढ़ियों पर चढ़ा तो उसे श्वास भी पता चलती थी । श्वास भी दिखाई पड़ रही थी - भीतर आती-जाती थी। पैर उठाया तो उसका भी होश था। खाना खाया, कौर उठाया, तो उसका भी परिपूर्ण स्मरण था ! श्वास की गति का भी स्पंदन ज्ञात हो रहा था ! ! 103
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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