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________________ महावीर : परिचय और वाणी त्राटक के बहुत से प्रयोग सीधे मूरज मे जीवन खीचने के प्रयोग है, सिर्फ एकाग्रता के प्रयोग नही। मूक जगत् ने महावीर के तादात्म्य के जो उत्तर दिए वे ही अब कहानियाँ बन गई है। उनके आधार पर हम कविताएँ रची है। कहा जाता है कि जब महावीर चलते तो पथ के काटे सीधे पडे न रहते, वे तत्काल उलट जाते ताकि वे महावीर के चरणो मे न चुमें। ये हमारी कहानियां है जो एक गहन सत्य पर प्रकाश डालती है। वह सत्य यह है कि प्रकृति भी महावीर के प्रतिकूल नहीं जाती, बल्कि अनुकूल होने की कोशिश करती है । जिस व्यक्ति ने उनसे इतना प्रेम किया, तादात्म्य स्थापित किया, वे उसके प्रतिकूल कैसे जा सकती है ? मडक के किनारे पड़ा हुआ पत्थर भी आपके प्रेम का उत्तर देता ही है । सुधी जनो का कहना है कि महावीर के समवसरण मे पहली उपस्थिति देवताओं की हुई थी। यह आश्चर्य की बात नहीं है। इसका कारण यह है कि देवताओ के जगत् मे अभिव्यक्ति के लिए शब्दो का सहारा लेना नहीं पड़ता। वहां सम्भाषण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नही होती है। उस लोक मे वाणी व्यर्थ हो गई है, वहाँ जो भाव उठते है, वे मौन मे सम्प्रेपित हो जाते हैं। इसलिए वहां मत्य की वार्ता सबसे ज्यादा सरल है । मानव-लोक मे शब्दो के विना वात-चीत नहीं हो सकती, इसलिए इसमे भावो का हूबहू सम्प्रेषण सर्वाधिक कठिन है, शब्दो के कारण ही संवाद होना मुश्किल हो गया है । पक्षियो के पास अपनी वाणी नही है, वे कुछ कह नही सकते, लेकिन कुछ अनुभव कर सकते है। इसलिए अगर कोई अनुभव के तल पर उनसे सम्बन्ध जोडे तो वह उनके अनुभवो को जान सकता है। महावीर के समवसरण मे पशु-पक्षी हो नही, देवता और मनुष्य भी उपस्थित थे। लेकिन जहाँ पशुपक्षियो ने उन्हे सुना और देवताओ ने समझा, वही मनुप्यो ने अनसुनी कर दी। मनुष्यो को जो कहा गया, शायद उन्होने नहीं सुना। मनप्यो के पास शब्द है और उन्हे अपनी समझदारी का खयाल है जो वडा खतरनाक है। मनुप्य को यह खयाल है कि मै सब समझ लेता हूँ। यह वडी भारी बाधा है। जो जरूरी चीजे है, वह अब भी मापा के बिना करता है। जैसे क्रोध आ जाय तो वह चांटा मारता है, प्रेम आ जाय तो वह गले लगाता है। इस प्रकार उसका पशु होना प्रकट हो जाता है । पशु के पास कोई भापा नही होती। वह जानता है कि भापा समर्थ नही है । मनुष्य को समझाने की चेष्टा ही सबसे ज्यादा कठिन चेष्टा है। देवताओ को समझने में कठिनाई नही होती, क्योकि उनसे कहनेवाले शब्दो को अपना माध्यम नहीं बनाते। उनके लिए व्याख्या करने का कोई सवाल ही पैदा नही होता । पशु भी समझ लेते हैं, क्योकि उनसे कहा ही नही जाता, व्याख्या की कोई बात ही नही होती-सिर्फ तरगे प्रेपित की जाती है।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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