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________________ चतुर्थ अध्याय धर्म का परम सूत्र : अहिसा और स्वभाव धम्मो मगलम क्किट्ठ अहिसा सजमो तवो । देवा वि तं नमंसन्ति जस्स धम्म सया मणो॥ -दग० अ० १ गा० १ (१) महावीर कहते है कि धर्म सर्वश्रेष्ठ मगल है । जीवन मे आनन्द की जो भी सम्भावना है वह धर्म के द्वार से ही प्रवेश करती है। जीवन मे सौन्दर्य के जो फूल खिलते है वे धर्म की जडो मे पोपित होते है। जीवन मे जो भी दुख है वह किसी-न-किसी रूप मे धर्म से च्युत हो जाने मे या अधर्म मे सलग्न हो जाने मे है। महावीर की दृष्टि मे धर्म का अर्थ है-जो मै हूँ उस होने मे ही जीना, जो मैं हूँ उससे जरा भी च्युत न होना। जो मेरा अस्तित्व है उससे बाहर जाते ही मेरे दुख का प्रारम्भ हो जाता है । दुख का प्रारम्भ इसलिए हो जाता है कि जो मैं नही हूँ, उसे कितना ही चाहूं तव भी वह मेरा नही हो सकता। जो मै नही हूँ, उसे में कितना ही वचाना चाहूँ, उसे मै बचा नही सकता। वह खोएगा ही। मैं केवल उसे ही पा सकता हूँ जिसे मैने किसी गहरे अर्थ मे सदा से पा रखा है । मै केवल उसका ही मालिक हो सकता हूँ जिसका मै जाने-न-जाने अभी भी मालिक हूँ। मृत्यु जिसे मुझसे छीन नही सकेगी, वही केवल मेरा है । रुग्ण हो जायगा सव-कुछ, नष्ट हो जायगा सब-कुछ , फिर भी जो विलीन नही होगा, वही मेरा है। गहन अधकार छा जाए, अमावस आ जाए जीवन मे चारो तरफ, फिर भी जो अंधेरा न होगा, वही मेरा प्रकाश है । लेकिन हम स्वय को खोजते है उसमे जो हम नही है, वही से विफलता और विवाद जनमता है, निराशा उत्पन्न होती है । इस जगत् मे वहुत कम लोग है जो स्वय को चाहते है। (२) हम स्वय को पा सकते है और कुछ पा नहीं सकते । सिर्फ दौड सकते है । सत्य केवल एक है और वह यह कि मै स्वय के अतिरिक्त इस जगत् मे और कुछ भी नही पा सकता। हाँ, पाने की कोशिश कर सकता हूँ, श्रम कर सकता हूँ, आशा वाँध सकता हूँ। पाने के स्वप्न देख सकता हूँ। अधर्म का अर्थ है-स्वय को छोडकर १. धर्म सर्वश्रेष्ठ मगल है। (कौन सा धर्म ?) हिसा, संयम और तप। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म मे सदा सलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते है।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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