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________________ महावीर परिचय और वाणी साधारण जन की बात तो दूर रही, आज का कलाकार भी मोया हुआ आदमी हे | सच पूछिए तो जहाँ कहानी खत्म होनी चाहिए वहाँ खत्म न होकर वह कही ओर भटक जाती है, कही और पूरी होती है । कवि चाहता कुछ है, लिखता कुछ । इसका कारण यह है कि सचेतन कला अभी तक पैदा ही नही हुई, निर्वैयक्तिक कला का अभी तक जन्म ही नही हुआ। अभी तो मोए हुए आदमी कविता लिखते है । दे शुरू कुछ करते है और हो कुछ जाना है । सोए हुए आदमी चित्र बनाते हैं, कहानियाँ रचते है, दुनिया चलाते है । सोए हुए आदमी का क्या नरोना ? लेकिन कहानी की बात छोड़ दे । जिन्दगी मे आप जो बनना चाहते थे, वह बन पाए ? नायद ही कोई ऐसा मिले जो कहे — मैं बन गया जो मैं बनना चाहता था । २१४ हमे इस बात का साफ-साफ ज्ञान नही होता कि हम क्या बनना चाहते है । नीद मे यह कैसे साफ हो सकता है ? पता ही नही चलता कि हमे क्या बनना है । एक धीमी-सी, सोयी हुई आकाक्षा होती है कि में यह बनना चाहता हूँ, माफ नही । साथ ही यह भी पता चलता रहता है कि मैं वह भी नही बन पा रहा हूँ जो में बनना चाहता था । मरते वक्त सभी को लगता है कि जिन्दगी बेकार गई, जो होना चाहते थे वह नही हो पाये - - हांलाकि मरता हुआ आदमी भी साफ-साफ नही कह सकता कि क्या होना चाहते थे । हम जो तय करते है वह खो जाता है, जो नही तय करते वह हो जाता है । तय करके लोटते है कि आज पत्नी से झगडा नही करना है । पत्नी तय करके रखती है कि अव कलवाली साँझ फिर न आ जाय । फिर वे आमने-सामने आते है और कल की सांझ वापस लौट आती है । जो तय किया था वह खो जाता है । यह हमारी सोयी हुई अवस्था है । महावीर ने इसे प्रमाद कहा है--प्रमाद, अर्थात्, सोए हुए होना। यदि यह स्मरण आ जाय कि मैं सोया हुआ हूँ तो खोज शुरू हो सकती है । इसलिए अप्रमाद का पहला सूत्र है इस बात की समझ कि मैं सोया हुआ हूँ, नीद का बोध । नीद को तोडने का पहला सूत्र है नीद को ठीक से पहचान लेना, यह जान लेना कि आप चाहे दूकान जाते हो या मन्दिर, आप हमेशा सोए हुए जाते हैं, सोए हुए मित्रता करते है, सोए हुए उठते-बैठते है । ध्यान रहे, कुछ प्रमादी धर्म को भी नीद मे ही साधते हैं, नीद मे ही मालाएं फेरते हैं, नीद मे ही व्रत करते है । धर्म सोएमोए नही हो सकता। सोए-सोए, सिर्फ अधर्म हो सकता है । इसलिए धर्म के नाम पर मी सिर्फ अधर्म ही होता है । साधना गहराई है और सिद्धि एक ऊँचाई । साधना नीचे जाती है, सिद्धि ऊपर जाती है । जडे जितना ही नीचे उतरने लगती है, वृक्ष उतना ही आकाश को छूने लगते है | अगर वृक्ष को ऊपर जाना है तो जड को नीचे जाना ही पड़ता है । सीधे ऊपर जाने का कोई उपाय नही है । इसलिए साधक को पहले अपनी ही गहराइयो
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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