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________________ १०२ महावीर : परिचय और वाणी जिस वत्ति से गूजरता हूँ, वह मुझे दुख दे जाती है। चांटा लोटाने का सवाल नही उठता । यदि वह भी चांटा मारता है तो उसका यह कर्म मेरे चॉटा मारने का फल नहीं है। वह उसका कर्म है जिसका फल उसे भोगना पडेगा। इन वात को ठीक से समझ लेना जरूरी है । मैने किसी को चांटा मारा है। अगर वह चुपचाप खडा रहे और यह सोचकर कि मारनेवाला बेचारा पागल है, वह कुछ न करे और चॉटे को साक्षी भाव से देखता रहे, तो उसने कोई कर्मवन्य नहीं किया। मेरे कर्मा की शृखला से उसने कोई सम्बन्ध नहीं जोडा । लेकिन अगर मेरे चांटे के उत्तर मे वह भी चांटा मारे तो वह मेरे चांटे का उत्तर नहीं है। अपने चांटे का उत्तर तो मै ही भोग रहा हूँ। वह अपने चाँटे का उत्तर स्वय भोगता है। यह उसकी कर्म-शृखला है । इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। इसमे कुछ अन्याय भी नहीं । इस सम्बन्ध मे दो प्रश्न उठते है . एक तो यह कि क्या ऐसे लोग नहीं होते जो Fटा मो मारे और उसका आनन्द भी ले ? दूसरा यह कि जिसे हम ईटा मारते है उसे क्ग दुख नही होता ? मैं कहता हूँ कि में चाँटा उमी को मारता हूँ जो चर्चाटे को आपित करता है। यह असम्भव हे कि मैं उसको चॉटा मारूँ जो चांटे को आकर्पित न करे। आकर्षित करने की वजह से वह दुख उठाता है । आकर्पण उसका हिस्सा है। यानी कोई आदमी इस दुनिया मे अकेले मालिक नहीं होता । गुलाम भी उसके साथ गुलाम होना चाहता है । नही तो यह सम्बन्ध वन ही नहीं सकता। जो गुलाम वनना नही चाहता उसे असम्भव हे गुलाम बनाना । इसलिए मैं कहता हूँ कि अन्याय असम्भव है। फिर भी हमे एक ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमे न कोई चांटे को आकर्षित करता हो और न कोई चाँटा मारने को उत्सुक हो । अन्याय का कुल मतलव इतना हो सकता है कि अभी दुनिया में ऐसे लोग वर्तमान है जो चांटा मारने को उतना ही उत्सुक है जितना चॉटा खाने को। जब भी कोई घटना घटती है तब उसके दो पहलू होते है । किन्तु हमारी दृष्टि एक ही पहलू पर जाती है और हम उस एक पहलू को देखकर ही किसी को अपराधी और किसी को निरपराध कह देते है। दूसरा पहलू भी जिम्मेदार होता है। जैसे, हम कहते है कि अँगरेजो ने आकर हमे गुलाम बना लिया। यह तो हमारी गुलामी की घटना का आधा हिस्सा है। उसका दूसरा हिस्सा यह है कि हम गुलाम होने की तैयारी मे थे। इसी प्रकार सती की प्रथा थी। अन्याय कुछ भी न था। जो स्त्रियाँ जलने को राजी थी, वे ही जलती थी। जो जलने को आज भी राजी हे वे स्टोव से आग लगा लेती है, जहर खा लेती है, कुछ भी करती है। मेरा कहना यह है कि उन दिनो भी सभी स्त्रियाँ सती नहीं हो जाती थी। वस्तुत सती की व्यवस्था आग मे जलने वाली औरतो के लिए एक सुविधा थी। लेकिन इसका मतलब यह नही कि सती-प्रथा रहनी चाहिए । दुनिया ऐसी होनी चाहिए जहाँ न कोई जलाना चाहे और
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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