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________________ ज्यों था त्यों ठहराया छोटे बच्चे भी पहचानते हैं कि कौन प्रेमपूर्ण है, कौन अप्रेमपूर्ण है। छोटा बच्चा जिसको प्रेमपूर्ण पाता है, उसके पास सरक आता है। जिसको अप्रीतिकर पाता है, उससे दूर हट जाता है। छोटे बच्चे को क्रोध से देखो, रोने लगता है। प्रेम से देखो--पास आने को ललचाने लगता है। और इन दर्पणों के साथ हम भी यही कर रहे हैं। लेकिन दर्पण हमारे सूक्ष्म हैं। इसलिए हम बहुत चिंतित होते हैं। जिस दर्पण ने कल हमारी सुंदर छवि दिखाई थी, अगर वह आज असुंदर छवि दिखाए, तो हमें लगता है--धोखा दिया गया, बेईमानी की गई! हम क्रोधित होते हैं। हम कहते हैं, कल की बात को बदलो मत; इतने जल्दी मत बदलो! हम नातों को थिर करना चाहते हैं। हम चाहते हैं, हमारे नाते-रिश्ते शाश्वत हो जाएं। हम चाहते हैं, समय उनमें कोई व्यवधान न डाले। यह हमारे सारे संसार का फैलाव है। इस छोटे से वचन में अदभुत बात कह दी रज्जब ने: ज्यूं मुख एक देखि दुई दर्पन, गहला तेता गाया। और जिन्होंने जितना जाना, जिन्होंने जितना पहचाना--उतना कहने की कोशिश की है, गाने की कोशिश की है। लेकिन जो सत्य है, वह किसी गीत में समाता नहीं। गहला तेता गाया--जितना बन पड़ा है, उतना जानने वालों ने कहा है। लेकिन उस एक को कहने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि शब्द भी दर्पण है। शब्द में लाते ही वह एक भी दो हो जाता है। जब व्यक्ति अपने भीतर परिपूर्ण शून्य में, ध्यान में डूबता है, तो अनुभव होता है, साक्षात्कार होता है कि मैं कौन हूं। अभी कोई दर्पण नहीं, सिर्फ प्रतीति होती है, अनुभूति होती है कि मैं कौन हूं। ऐसा भी नहीं कि कोई उत्तर मिलता है, कि मैं कौन हूं। बस, एक भावदशा। यह परम शिखर है। जैसे ही तुमने अपने भीतर भी कहा कि अरे, यह रही समाधि! दर्पण शुरू हुए। एक से दो हो गई बात। बोलने वाला भीतर आ गया। मन लौट आया। मन ने कहा, सुनो मेरी! यह है समाधि। यही तो है निर्विकल्प समाधि। यही तो है निर्बीज समाधि। यही तो पतंजलि ने गाई। यही तो कबीर ने गुनगुनाई। यही तो नानक बोले। यही तो महावीर के वचनों में है। यही तो बुद्ध का संदेश है। यही तो कुरान है। यही गीता; यही बाइबिल! आ गए तुम। पहुंच गए तुम। अब भ्रांति शुरू हुई। दर्पण आ गया। मन ने एक दर्पण सामने कर दिया। समाधि एक बात थी; मन दर्पण दिखाने लगा। अब समाधि दो हो गई। शब्द बनी; विकृति शुरू हो गई। फिर तुम किसी से कहोगे, तब और विकृति हो जाएगी। क्योंकि जो तुम्हारे भीतर छिपा था, उसको तो तुम किसी से कहने जाओगे, तो बात और बिगड़ जाएगी। क्योंकि जिससे तुम कहोगे, उसका कोई अनुभव नहीं है समाधि का। वह समाधि शब्द को तो सुन लेगा...और चूंकि बहुत बार इस शब्द को सुना है, इसलिए ऐसा भी मान लेगा कि अर्थ मेरी पकड़ में आता है। मगर अनुभव के बिना अर्थ कहां! उसके लिए शब्द थोथा है, अर्थहीन है। वह सुन लेगा। शायद तोते की तरह दोहराने भी लगेगा। Page 7 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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