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________________ ज्यों था त्यों ठहराया पीछे लौट कर देखोगे, तो समय का रूप बदल जाता है। दुख में समय लंबा मालूम होता है। स्मृति में दुख का समय छोटा हो जाता है। सुख में समय छोटा मालूम होता है; स्मृति में सुख का क्षण लंबा हो जाता है। और समय के संबंध में आखिरी जो बात समझने की है, वह यह है कि दुख में और सुख में समय का इतना अंतर पड़ता है; आनंद में समय की क्या अवस्था होगी? आनंद में समय मिट ही जाता है। जब कोई व्यक्ति ठीक समाधिस्थ अवस्था में होता है, शून्य भाव में होता है, साक्षी भाव में होता है; ज्यूं था त्यूं ठहराया--उस अवस्था में होता है, तब समय समाप्त हो जाता है। समय होता ही नहीं। और अगर इस क्षण को तुम लौट कर याद करोगे, तो लगेगा शाश्वत था! क्योंकि इतना अपूर्व था! इतना गदगद तुम हए थे कि शाश्वत भी उस विराट आनंद को अपने में कैसे समाएगा, यह भी भरोसा नहीं आता। अब्दुल करीम, इस छोटी-सी उम्र में, पूछते हो, मैं क्या-क्या खुदा करूं? कुछ न करो! बस, एक बात करो--ज्यूं था त्यूं ठहराया। इतना ही करो, और सब हो जाएगा। इश्के बुतां भी हो जाएगा, यादे खुदा भी हो जाएगी। मूर्ति में जो अमूर्त छिपा है, वह मिल जाएगा। फिर मूर्त से जाना हो, तो मूर्त से जाओ। अमूर्त में सीधी छलांग लगानी हो, तो सीधी छलांग लगाओ। मगर दिखाई नहीं पड़ता मुझे कि कोई अमूर्त में सीधी छलांग लगा पाता हो। माना कि मसजिद में कोई बुत नहीं है, कोई मूर्तियां नहीं हैं। लेकिन काबा का पत्थर क्या है? आखिर मसजिद क्या है? मसजिद भी वही काम करने लगी, जो मूर्ति करती है! आखिर मसजिद में तुम हाथ धो कर वजू कर के प्रवेश क्यों करते हो? मसजिद की पवित्रता क्या है? अगर मसजिद भी एक मकान है, जैसे और मकान हैं, तो मसजिद में नमन क्या करते हो! अगर ईंट-पत्थर-गारा ही है, जैसा सब मकानों में लगा है। नहीं। लेकिन मसजिद की कुछ खूबी है। वही खूबी मूर्ति हो गई। माना कि तुम्हारी मसजिद में मूर्ति नहीं है...बहुत से मंदिर हैं, जिनमें मूर्ति नहीं होती--ग्रंथ होते हैं। मैं जिस जैन परिवार में पैदा हुआ उसके मंदिर में मूर्ति नहीं होती, उसके मंदिर में ग्रंथ होता है, जैसे गुरुद्वारा में ग्रंथ होता है। तारण एक फकीर हुए नानक के समय में ही हए। मेरा परिवार परंपरागत रूप से उन्हीं की शृंखला में हैं। जैसा नानक ने मूर्ति को हटा दिया और गुरु-ग्रंथ को जगह दे दी; वैसे ही तारण ने भी किया। वह एक हवा थी उस समय--आज से पांच सौ साल पहले। कबीर, नानक, तारण, रैदास--एक हवा थी कि क्यों पत्थर की मूर्ति पूजनी? मगर कागज की किताब भी तो आखिर पत्थर की मूर्ति ही है। शायद पत्थर की मूर्ति ज्यादा टिकाऊ है कागज की किताब से--अगर स्थिरता की सोचो। अगर परमात्मा की शाश्वतता की सोचा, तो पत्थर की मूर्ति शायद उसकी शाश्वतता की खबर देती है। लेकिन अगर विचार की बात सोचो, तो शास्त्र ज्यादा उपयोगी हो सकता है। मूर्ति क्या कहेगी? शास्त्र पढ़ा जा सकता है; चिंतन-मनन किया जा सकता है। तो जिनको चिंतन-मनन प्रिय था, उन्होंने शास्त्र रख लिया। जिनको भजन-कीर्तन प्रिय था, उन्होंने मूर्ति रख ली। जो रुचिकर हो। Page 21 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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