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________________ ज्यों था त्यों ठहराया स्वामी शांतिस्वरूप भारती ने पूछा है कि आपकी अध्यात्म और धर्म पर बातें तो हमें बहुत प्यारी लगती हैं। मगर राजनीति या समाज पर जब आप कुछ कह देते हैं, तो मैं राजी नहीं हो पाता। इससे अपराधभाव पैदा होता है। मैं क्या करूं? अपराधभाव दो ही ढंग से मिट सकता है। या तो संन्यास छोड़ दो। अगर तुम्हें राजनैतिक और सामाजिक विचारों को पकड़ने का इतना आग्रह है; तुम्हें अपने विचार इतने पकड़ने का आग्रह है, तो छोड़ दो वे मधुर बातें। अपराधभाव से मुक्त हो जाओगे। संन्यास से मुक्त हो जाओ। और या फिर अगर सच में ही अध्यात्म और धर्म की बातें तुम्हें इतनी प्यारी लगती हैं, तो इतनी भी कीमत नहीं चुका सकते कि दो कौड़ी के अपने राजनैतिक विचार और सामाजिक धारणाओं को छोड़ दो! और क्या तुम्हारे राजनैतिक विचार और क्या तुम्हारी सामाजिक धारणाएं! अपना बोध नहीं है--समाज का तुम्हें क्या खाक बोध होगा? अपनी पहचान नहीं है और सोचते तुम यह हो कि राजनीति पर तुम्हारी कोई दृष्टि हो सकती है! सिर्फ बुद्धों के सिवाय समाज और राजनीति के संबंध में भी जो लोग कुछ कहते हैं, वह उनकी मूढता से ही निकलेगा। और मजा यह है कि हम नहीं चाहते कि बुद्धपुरुष कुछ भी राजनीति और समाज के संबंध में कहें, क्योंकि कम से कम हम यह तो मानते ही हैं कि उस दिशा में तो हमारी ही दृष्टि ठीक है। बुद्धपुरुषों को बोलने की जरूरत ही क्या है! वे तो अपना अध्यात्म सम्हालें। मेरे साथ होना है, तो पूरे-पूरे। अधूरे-अधूरे--अपने को धोखा मत दो। मैं तुम्हें छुट्टी देने को तत्क्षण राजी हूं। छोड़ दो संन्यास; अपराधभाव से मुक्त हो जाओ। बचा लो अपनी राजनीति। बचा लो अपनी सामाजिक धारणाएं! अगर उनकी कोई कीमत है--तो ठीक है। कीमती चीज को बचा लेना चाहिए। और अगर उनकी कोई कीमत नहीं है; दो कौड़ी की हैं--और दो कौड़ी की ही हैं--तो फिर तुम्हें जो प्यारा लग रहा है उसके लिए कुर्बान कर दो। कैसा अपराधभाव! मैं कुछ बातें जरूर ऐसी कहता हूं, जो तुम्हारी परीक्षाएं हैं। मेरे अपने ढंग हैं आदमियों को तौलने के, परखने के, बदलने के। मैं कुछ ऐसी बातें जरूर कहूंगा, जो तुम्हारी धारणाओं के विपरीत जाती रहें। अध्यात्म तो हवाई बात है। उसमें तो तुम बड़े जल्दी राजी हो जाते हो। अब मोक्ष में तुम्हें झगड़ा भी क्या! ध्यान से तुम्हें विरोध भी क्या! सब मीठा-मीठा है। और सब सुंदर ही होगा। कुछ तुम्हारी तो वहां तो गति नहीं है। आकाश में तुम्हारी कोई गति नहीं है। इसलिए वहां तो तुम बड़े जल्दी राजी हो जाते हो। शायद उन बातों से भी तुम्हारे अहंकार की तृप्ति हो रही हो--कि देखो, मैं संन्यासी हो गया। अब देखो, मैं अध्यात्म का पथिक हो गया। अब मेरी यात्रा परमात्मा की तरफ चल रही है। अब मैं मोक्ष पाने के लिए अग्रणी हो रहा हूं। अब दूर नहीं है मंजिल। लेकिन तुम्हारी दो कौड़ी की धारणाएं हैं कि कोई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सदस्य है। उसको मैंने कुछ कह दिया--चोट लग गई। कि कोई जनता पार्टी का सदस्य है, उसको मैंने कुछ कह दिया और चोट लग गई। Page 201 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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