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________________ ज्यों था त्यों ठहराया मैं आनंदित हूं कि तुम समझे। डर था कि कहीं नासमझी न कर बैठो। क्योंकि जब मैं तुम्हारी पीठ थपथपाता हूं, तब तो प्यारा लगता हूं। तब तुम्हारी आंखों से आनंद के आंसू झरते हैं। तुम गदगद हो जाते हो। लेकिन जरा-सी चोट मारो कि बस, तुम तिलमिला उठते हो। तुम्हारा अहंकार सिर उठा कर खड़ा हो जाता है। क्रोध से भनभना जाते हो। मगर मेरी भी मजबूरी है। मुझे तुम्हें सम्हालना भी होगा; और मुझे तुम्हें मारना भी होगा। दोनों ही काम करने पड़ेंगे! तुम धन्यभागी हो कि तुम चोट को भी स्वागत कर सके; और तुम्हें कबीर का यह प्यारा पद याद आया। कबीर के पद अदभुत हैं, बेजोड़ हैं। अब इन दो छोटी-सी पंक्तियों में गुरु और शिष्य की सारी कथा आ गई। गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है!...गुरु तो है कुम्हार, और शिष्य घड़ा--कच्चा; अभी मिट्टी से बनाया जा रहा है। अभी चाक पर चढ़ाया जा रहा है। गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, घड़ि-घड़ि काट्टै खोट! अभी बहुत-सी खोट निकालनी है। कंकड़पत्थर होंगे मिट्टी में--अलग करने हैं। घास-पात आ मिला होगा--अलग करना है। नहीं तो घड़ा पानी भरने योग्य नहीं बन सकेगा। घड़ा तो बन जाएगा, मगर खाली का खाली रह जाएगा। घड़े को भरना है अमृत से। अमृत-घट बनाना है। गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, घड़ि-घड़ि काट्टै खोट। तो जितनी खोट है, निकाल-निकाल अलग करनी होगी। और जब खोट निकाली जाती है, तो पीड़ा होती है। जैसे कि कोई तुम्हारे नासूर से मवाद निकाले, तो पीड़ा तो होती है, दर्द तो होता है। लेकिन और कोई उपाय ही नहीं है। और इसलिए भी बहुत पीड़ा होती है कि जिसे गुरु खोट समझता है, तुम उसे खरा सोना समझते हो! तुमने जिस अज्ञान को छाती से लगा रखा है, उसे तुमसे छीनना है। मगर तुम उसे संपदा समझे हो! तुमने जिस अहंकार को सिर पर बिठा रखा है, उसे नीचे गिराना है। मगर वह तुम्हारी पगड़ी बना बैठा है! वह तुम्हारी इज्जत! वह तुम्हारी आबरू! तुम्हारे अंध-विश्वास छीनने हैं। मगर तुम्हारे अंधविश्वास, तुम्हारे रिवाज, तुम्हारे रस्म, तुम्हारी परंपराएं--बाप-दादों के जमानों से चली आती--वही तो तुम्हारी कुल जमा पूंजी है। एक धनपति बड़ा कंजूस। उसके पास सोने की ईंटें थीं। लेकिन खाता था रूखी-सूखी। कपड़े पहनता था पुराने, जराजीर्ण। रहता था एक झोपड़े में। सोने की ईंटें उसने अपनी बगिया में गड़ा रखी थीं। रोज खोद कर देख लेता था कि हैं अपनी जगह या नहीं! फिर मिट्टी से ढांक देता था। पड़ोसी को थोड़ा शक हुआ कि बात क्या है--यह रोज-रोज वहीं जाता है। सुबह जाता है। शाम जाता है। कभी-कभी आधी रात भी जाता है। खोद कर कुछ देखता है! तो पड़ोसी की उत्सुकता जगनी स्वाभाविक थी। एक दिन छिप रहा पड़ोसी। देखा, तो दंग रह गया। सोने की ईंटें थीं! यह कंजूस तो लौटा ईंटें दबा कर, उस पड़ोसी ने सोने की ईंटें तो निकाल ली और उनकी जगह साधारण मिट्टी की ईंटें रख दीं। Page 127 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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