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________________ व्यक्तियों पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता। मकड़ी के तन्तु मच्छर को बांध सकते हैं, पर हाथी को नहीं। 162 ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं - नाल्पसत्त्वैर्न नि: शीलनदीनै क्षनिर्जितैः । स्वप्नेऽपि चरितुं शक्यं ब्रह्मचर्यमिदं नरैः।। जो मनुष्य दुर्बल, शील से रहित, दीन और इन्द्रियों के अधीन हैं वे स्वप्न में भी उस ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं कर सकते। 183 आचार्य तुलसी ने भी ब्रह्मचर्य की मूल अर्हता आत्म बल को ही माना है। वस्तुत: ब्रह्मचर्य जैसी कठोर साधना बिना शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्ति के नहीं हो सकती। किसी कवि ने कहा है - शक्यं ब्रह्मव्रतं घोर, शूरैश्च न तु कातरैः। करिपर्याणमुद्वाह्य, करिभिर्न तु रासभैः।। (4) नि:शल्यता - तत्त्वार्थ सूत्र में सभी व्रतों की अर्हता नि:शल्य होना माना है - नि:शल्यो व्रती। उसके अनुसार शल्य रहित ही व्रती हो सकता है। मात्र त्याग करने का कोई मोल नहीं है। सर्वार्थ सिद्धि के अनुसार - शृणाति हिनस्ति इति शल्यम। अर्थात् शल्य शब्द का अर्थ है - पीड़ा देने वाली वस्तु। जैसे शरीर के किसी भाग में काँटा या वैसी ही दूसरी कोई तीक्ष्ण वस्तु चुभे तो वह शरीर और मन को अस्वस्थ-बैचेन बना डालती है और आत्मा को किसी भी कार्य में एकाग्र नहीं होने देती वैसे ही कर्मोदय जनित विकार भी शल्य के समान होते हैं। शल्य तीन प्रकार के होते हैं : 1. मायाशल्य = दम्भ, कपट, ढ़ोंग अथवा ठगने की वृत्ति। 2. निदान शल्य = भोग की लालसा। 3. मिथ्यादर्शन शल्य = सत्य पर श्रद्धा न होना अथवा असत्य का आग्रह। ये तीनों मानसिक दोष हैं। जब तक ये रहते हैं, चित्त समाधि नहीं रहती। इसलिए शल्य युक्त आत्मा किसी कारण से व्रत ले भी ले तो भी उसका पालन नहीं कर सकती है। (5) चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम - कर्मवाद के सिद्धान्त का प्रत्येक साधना के साथ गहरा संबंध है। कर्मों की औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक - ये पांच अवस्थाएं होती हैं, इन्हीं के आधार पर व्यक्ति की अवस्थाएं परिवर्तित होती रहती हैं। ठाणं सूत्र में संपूर्ण ब्रह्मचर्यवास की प्राप्ति के दो स्थान बताए हैं - 34
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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