SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 167 1. क्षय और उपशम 2 क्षयोपशम भगवती सूत्र के अनुसार ब्रह्मचर्य की प्राप्ति का हेतु चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है। जिसके चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है वह किसी उपदेशक का निमित्त मिलने से या न मिलने से भी ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लेता है जिसके यह क्षयोपशम नहीं होता वह केवली आदि उपदेशक के प्रेरित करने पर भी ब्रह्मचर्य ग्रहण नहीं कर सकता है। 168 6.0 निष्कर्ष जैन वाङ् मय के अध्ययन से फलित होता है कि ब्रह्मचर्य जैन साधना पद्धति का प्राण तत्त्व है। जैन आगमकार एवं टीकाकारों ने ब्रह्मचर्य की मुक्त कंठ से सराहना करते हुए इसके विवेचन को प्रस्तुत किया है। आचारांग सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन आदि ग्रंथों में ब्रह्मचर्य पर स्वतंत्र अध्याय की रचना इसके अतिरिक्त महत्त्व को उजागर करती है। जैन परम्परा में पांच व्रतों की सुरक्षा के लिए समिति गुप्ति एवं पच्चीस भावना आदि की व्यवस्था है। ब्रह्मचर्य का महत्त्व इससे भी प्रतिपादित होता है कि ब्रह्मचर्य सुरक्षा के लिए उपरोक्त के अतिरिक्त नव बाड़ एवं दसवां कोट की व्यवस्था की गई है। यत्र-तत्र अनेक ऐसे सूत्र भी हैं जो ब्रह्मचर्य की सुरक्षा की दृष्टि से विधि एवं निषेध का मार्गदर्शन देते हैं। यहाँ ब्रह्मचर्य को महादुष्कर साधना माना जाता है। यहाँ अन्य व्रतों एवं नियमों का सापवाद (अपवाद सहित ) एवं सापेक्ष दृष्टि से प्रतिपादन मिलता है। किन्तु ब्रह्मचर्य को निरपवाद साधना माना जाता है। यहाँ तक कहा गया है कि यदि कोई स्त्री का परीषह आ जाए तो अपनी प्रतिज्ञा की सुरक्षा के लिए मर जाना श्रेयस्कर है परन्तु ब्रह्मचर्य भंग करना उचित नहीं। सामान्यत: ब्रह्मचर्य का अर्थ "मैथुन विरति" ही किया जाता है। परन्तु जैन आगमों एवं टीकाकारों ने ब्रह्मचर्य को विराट अर्थों में प्रतिपादित किया है। यहाँ ब्रह्मचर्य के अर्थ में अनेक शब्दों का प्रयोग मिलता है जैसे- आत्मविद्या, आत्म विद्याश्रित आचरण, विरति, आचार, मैथुन विरति - उपस्थ संयम, गुरुकुलवास, सत्य, तप, आत्म रमण, संवर, संयम आदि । मेरी दृष्टि में आत्म रमण" ही ब्रह्मचर्य का सर्वाधिक उपयुक्त अर्थ है क्योंकि व्यक्ति के आत्मा में रमण होने पर ही वह बाह्य जगत से मुक्त हो जाता है और तभी अकुशल कार्यों को त्याग कर कुशल कार्यों में आत्मा को नियोजित कर पाता है। साहित्य के क्षेत्र में किसी विषय का महत्त्व इससे भी परिलक्षित होता है कि उसे किनकिन उपमाओं से उपमित किया गया है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य को सैंतीस उपमाओं से उपमित किया गया है। एक-एक उपमान ब्रह्मचर्य के महत्त्व को उजागर तो करते ही हैं, इसमें छिपे सूक्ष्म सत्य का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। 35
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy