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________________ वासनावश कामोद्दीपक, बाजीकरण औषधि, मादक द्रव्य आदि के सेवन द्वारा व्यक्ति वैसा न करे। चारित्रिक दृष्टि से यह बहुत आवश्यक है। वैसा करना इस व्रत का पांचवां अतिचार है, जिससे उपासक को सर्वथा बचते रहना चाहिए। ब्रह्मचर्य अणुव्रत की अक्षुण्ण अनुपालना के लिए उपरोक्त अतिचारों से बचना आवश्यक है। खान-पान, रहन-सहन का भी ब्रह्मचर्य की साधना में महत्त्व होता है। यशस्तिलक चम्पुगत - उपासकाध्ययन में ब्रह्मचर्य अणुव्रत को सुरक्षित रखने के लिए दस बातों से बचने का सुझाव दिया गया हैं - 1. शराब 2. जुआ 3. मांस 4. मधु 5. नाच, गाना और वादन 6. लिंग पर लेप आदि लगाना 7. शरीर को सजाना 8. मस्ती 9. लुच्चापन 10. व्यर्थ भ्रमण। 120 3.2 (2)(ii) उपासक की प्रतिमाएं और ब्रह्मचर्य । 'प्रतिमा' जैन परम्परा का पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है अभिग्रह अर्थात् विशेष प्रकार का संकल्प। महाव्रती भिक्षु एवं अणुव्रती श्रावक दोनों ही साधना पद्धति में 'प्रतिमा' का व्यवस्थित रूप मिलता है। भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है किन्तु व्यवहारिक दृष्टि से वर्तमान में यह साधना विच्छिन्न हो चुकी है। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं हैं जिनकी साधना वर्तमान में भी की जा सकती हैं। समवायांग सूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध में इनका विवरण इस प्रकार मिलता है - 12 (1) दर्शन श्रावक - इसका कालमान एक मास का है। इसमें सर्वधर्म विषयक रुचि होती है। सम्यक् दर्शन उपलब्ध होता है। (2) कृतव्रत कर्म - काल - 2 मास। पूर्वोक्त उपलब्धि के अतिरिक्त शील व्रत, गुणव्रत, पौषधोपवास व्रत होते हैं, किन्तु सामायिक व देशावकासिक व्रत नहीं होते। (3) कृत सामायिक - यह तीसरी प्रतिमा है इसका काल है तीन मास। प्रात: सायं सामायिक और देशावकासिक व्रत इसमें होता है। (4) पौषधोपवास प्रतिमा - यह चार मास की होती हैं। इसमें श्रावक चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा आदि पर्व दिनों में प्रतिपूर्ण पौषध करता है। (5) दिन में ब्रह्मचारी - यह पांच मास की होती हैं। इसमें साधक ‘एक रात्रि की उपासक प्रतिमा' का सम्यक् अनुपालन करता है। स्नान नहीं करता, दिवाभोजी होता है, धोती के दोनों अंचलों को कटिभाग में टांक लेता है- नीचे से नहीं बांधता, दिन में ब्रह्मचारी और रात्रि में अब्रह्मचर्य का परिमाण करता है। (6) दिन और रात में ब्रह्मचारी - इसका काल छह महीने का हैं। पूर्वोक्त नियमों के अतिरिक्त इसमें साधक दिन और रात में ब्रह्मचारी रहता है। (7) सचित्त-परित्यागी - इस सातवीं प्रतिमा का काल मान सात महीने हैं। इसमें पूर्वोक्त नियमों का पालन करते हुए सम्पूर्ण सचित्त का त्याग किया जाता है। (8) आरम्भ परित्यागी - इसका कालमान आठ महीने है। इसमें आरम्भ हिंसा का परित्याग हो जाता है। (9) प्रेष्यारम्भ परित्यागी- इसमें नौकर आदि से भी आरम्भ का त्याग किया जाता है। (10) 24
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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