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________________ उद्दिष्ट भक्त परित्यागी - इसमें उद्दिष्ट भोजन - साधक के निमित्त बना भोजन का त्याग होता है। सिर को क्षुर से मुंडवाया जाता है। यह प्रतिमा दस महीनों की होती हैं। (11) श्रमण भूत प्रतिमा - ग्यारह महीनों की इस प्रतिमा में श्रावक श्रमण की तरह रहता है। सिर को क्षुर से मुंडवाता है या लोच करता है। साधु का वेश धारण करता है। साधु के नियमों का पालन करता है। भिक्षावृत्ति अपनाता है। इन प्रतिमाओं का कालमान उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है तथा पूर्व प्रतिमा के नियम बाद की प्रतिमा में भी यथावत् रहते हैं। दूसरी प्रतिमा में ब्रह्मचर्य अणुव्रत की स्वीकृति हो जाती है उसके बाद पांचवीं प्रतिमा में ब्रह्मचर्य की विशेष साधना प्रारम्भ हो जाती है। अणुव्रत और प्रतिमा में यह अन्तर है कि अणुव्रत जीवन भर के लिए स्वीकार किए जाते हैं। इसमें करण और योग अपनी क्षमता या सुविधा के अनुरूप किया जाता है। जबकि प्रतिमा कुछ काल विशेष के लिए तीन करण-तीन योग से स्वीकार की जाती है। प्रतिमाएं गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य की साधना का अच्छा उपक्रम है। 3.3 नव प्रकार का ब्रह्मचर्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में स्त्री संग के त्यागी मुनि के मन, वचन और काया के कृत, कारित एवं अनुमोदन के भेद की अपेक्षा से ब्रह्मचर्य के नौ भेद किए गए हैं। 12 इसकी विस्तृत व्याख्या इस प्रकार हैं 1. करूं नहीं - मन से 2. करूं नहीं - वचन से 3. करूं नहीं - काया से 4. कराऊं नहीं - मन से 5. कराऊं नहीं - वचन से 6. कराऊं नहीं - काया से 7.अनुमोदुं नहीं - मन से 8. अनुमोदूं नहीं - वचन से 9. अनुमोदुं नहीं - काया से 3.4 अठारह प्रकार का ब्रह्मचर्य समवायांग सूत्र के अनुसार उपभोक्ता की दृष्टि से कामभोग (मैथुन सेवन) के दो प्रकार का हैं (1) औदारिक - मनुष्य और तिर्यञ्च संबंधी काम-भोग, (2) दिव्य - देव संबंधी काम-भोग।
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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