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________________ के स्थान पर 'परस्त्री गमन' नामक अतिचार कहा है और विटत्व के स्थान पर 'रतिकैतव्य' का उपयोग किया है। 119 इन अतिचारों का विस्तृत विवेचन इस प्रकार मिलता हैं - (क) इत्वरिक परिगृहीतागमन - इत्वरिक का अर्थ है अस्थायी या अल्पकालिक। जो स्त्री कुछ समय के लिए किसी पुरुष के साथ पत्नी के रूप में रहती है तथा किसी अन्य पुरुष के साथ उसका यौन संबंध नहीं रहता, वह इत्वरिका कहलाती है। ऐसी स्त्री के साथ सहवास करना 'इत्वरिक परिगृहीतागमन' दोष है। इत्वरिका का एक अर्थ अल्पवयस्का भी किया गया है। इसके अनुसार छोटी आयु की स्व-पत्नी के साथ सहवास करना इत्वरिक परिगृहीतागमन दोष (ख) अपरिगृहीतागमन - अपरिगृहीता का अर्थ है वह स्त्री जो किसी के भी द्वारा पत्नी के रूप में परिगृहीत या स्वीकृत नहीं है, अथवा जिस पर किसी का अधिकार नहीं है। कुछ आचार्य अपरिगृहीत का अर्थ करते हैं कि किसी के द्वारा ग्रहण नहीं की गई अर्थात् कुमारी। दूसरे कुछ आचार्य व्यक्ति की अपेक्षा से पर स्त्री को भी उसके द्वारा परिगृहीत नहीं होने के कारण अपरिगृहीत मानकर इससे पर-स्त्रीगमन का अर्थ लेते हैं। अत: वेश्या, कुमारी अथवा पर-स्त्री से काम संबंध रखना ब्रह्मचर्य अणुव्रत का दूसरा अतिचार है। (ग) अनंग क्रीड़ा - इसका अर्थ है कामावेशवश अस्वाभाविक काम-क्रीड़ा करना। इसके अन्तर्गत समलैंगिक सम्भोग, अप्राकृतिक मैथुन अर्थात् हस्त, मुख, गुदादि अंगों से, पशु-पक्षियों से, कृत्रिम कामोपकरणों से, विषय-वासना शान्त करना आदि समाविष्ट हैं। आयुर्वेद के ग्रंथों में स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इन्हें अकर्तव्य माना गया है। यह इस व्रत का तीसरा अतिचार है। (घ) पर-विवाहकरण - जैन परम्परा में उपासक का लक्ष्य ब्रह्मचर्य साधना है। विवाह तत्त्वत: आध्यात्मिक दृष्टि से मानव की दुर्बलता है। क्योंकि हर कोई संपूर्ण रूप से ब्रह्मचारी रह नहीं सकता। एक अणुव्रती का लक्ष्य ब्रह्मचर्य की दिशा में उत्तरोत्तर विकास करना होता है। इस दृष्टि से इस अतिचार की परिकल्पना की गई। इसके अनुसार स्व-संतान एवं परिजनों के अतिरिक्त दूसरों के वैवाहिक संबंध करवाना इस अतिचार में आता है। यह ब्रह्मचर्य अणुव्रत का चौथा अतिचार है। कुछ आचार्यों ने दूसरा विवाह करना भी इस अतिचार में ही माना है। (ड) काम भोग तीव्राभिलाषा - नियंत्रित और व्यवस्थित काम सेवन मानव की आत्म दुर्बलता के कारण एक आवश्यकता है। उस आवश्यकता की पूर्ति तक व्यक्ति क्षम्य है परन्तु उसे काम की तीव्र अभिलाषा या उद्दाम वासना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए। तीव्र वैषयिक 23
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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