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________________ भी रचनाकार अपने को इसमें असक्षम ही मानते हैं। वे कहते हैं - यदि मूर्ताः प्रजायरेन् स्त्रीणां दोषाः कथंचन। __ पूरयेयुस्तदा नूनं निःशेषं भवनोदरम् ।। स्त्रियों में इतने अधिक दोष होते हैं कि यदि वे किसी प्रकार से मूर्त स्वरूप को धारण कर लें तो वे निश्चय से समस्त लोक को पूर्ण कर देंगे।" यद्वक्तुं न वृहस्पतिः शतमरवः श्रोतुं न साक्षात्क्षम। स्तस्बत्रीणामगुणब्रजं निगदितुं मन्ये न कोऽपि प्रभुः ।। स्त्रियों के जिस दोष समूह का वर्णन करने के लिए साक्षात् वृहस्पति समर्थ नहीं है तथा जिसे सुनने के लिए साक्षात् इन्द्र भी समर्थ नहीं है, उसका वर्णन करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है। 75 स्त्री निन्दा की सापेक्षता - यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर स्त्री की निन्दा की गई है। ज्ञानार्णव और भगवती आराधना आदि में तो यह कार्य बहुत ही विस्तार से किया गया है। फिर भी प्रायः सभी ग्रन्थकारों ने स्त्री को एकान्त निन्दनीय नहीं माना है। भगवती आराधना में शीलवान स्त्रियों का अस्तित्व भी माना गया हैं और उनकी प्रशंसा भी मुक्त कण्ठ से की गई है। सूत्रकार कहते हैं कि जो गुण सहित स्त्रियां हैं, जिनका यश लोक में फैला हुआ हैं तथा वे मनुष्य लोक में देवता के समान हैं। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और श्रेष्ठ गणधरों, सर्वगुण सम्पन्न साधुओं, चरम शरीरी साधकों को जन्म देने वाली होती हैं तथा ऐसी महिलाएं श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा भी पूजनीय होती हैं। इन महान महिलाओं के अतिरिक्त भी कितनी ही महिलाएं एक पतिव्रत और कौमार ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं। कितनी ही जीवन पर्यन्त वैधव्य का दुःख भोगती हैं। कुछ महिलाओं का शील व्रत इतना पवित्र होता है कि इसके प्रभाव से वे अभिशाप देने और अनुग्रह करने का सामर्थ्य रखती हैं। ऐसी स्त्रियों को महानदी के जल का प्रवाह डूबो नहीं सकता, प्रज्ज्वलित घोर अग्नि जला नहीं सकती, सर्प-व्याघ्र आदि भी कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैं।" __ यहां निन्दनीय वे स्त्रियां हैं जो पुरुष के शील को खतरा पैदा करती हैं। इसी प्रकार वे पुरुष जो स्त्रियों के शील को खतरा पैदा करते हैं वे भी इसी प्रकार निन्दनीय हैं।" 'करत-करत अभ्यास में प्राचीन साहित्य में की गई स्त्री निन्दा पर सापेक्ष टिप्पणी की गई है। लेखक के अनुसार स्त्री शब्द 'नारी' के लिए नहीं 'वासना' के लिए प्रयुक्त हुआ है। स्त्री को प्रतीक बनाकर उसमें वासना का आरोपण किया गया है। वासना का संबंध वेद से है वह स्त्री-पुरुष दोनों में हो सकता है। वासना साधना में विघ्न है। वासना की फिसलन भरी राह पर साधक फिसले नहीं, इसलिए उसे उससे दूर रहने का दिशा दर्शन दिया गया है। स्त्री 132
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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