SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुष्कर होता है, इसलिए भगवान महावीर ने एकान्त हित की दृष्टि से विविक्त वास को प्रशस्त कहा है। इसी सूत्र में विविक्तशयनासन की उपयोगिता को सोदाहरण बताया गया है कि जैसे औषध लेने से रोग आक्रान्त नहीं करता वैसे ही इससे साधक के चित्त को राग रोग आक्रांत नहीं करता, काम बीज अनुकूल वातावरण मिलने पर ही अंकुरित होता है। विविक्त शयनासन इसे प्रारम्भिक स्तर पर ही रोक देता है। बृहत्कल्प सूत्र में गृहस्थों से युक्त आवास में साधु-साध्वियों के प्रवास की विधिनिषेध इस प्रकार बताई गई है - © साधु-साध्वियों को गृहस्थ के आवासयुक्त उपाश्रय में प्रवास करना नहीं कल्पता © केवल स्त्री निवास युक्त उपाश्रय में साधुओं का रहना नहीं कल्पता हैं।" © केवल पुरुषों के आवास युक्त उपाश्रय में साधुओं का रहना कल्पता हैं। © साध्वियों को केवल पुरुष निवास युक्त उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता हैं।" ० केवल स्त्री के आवास युक्त उपाश्रय में साध्वियों को रहना कल्पता हैं।" इस सूत्र में विविक्तशयनासन के क्षेत्र को और भी विस्तृत करते हुए प्रतिबद्ध शय्या' प्रवास स्थल में भी साधुओं का प्रवास कल्पनीय नहीं माना गया है।'' प्रतिबद्ध शय्या को स्पष्ट करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि मध्यवर्ती दीवार तथा काष्ठफलक आदि के साथ गृहस्थ के घर से जुड़ा हुआ उपाश्रय प्रतिबद्ध शय्या कहलाता है। 'द्रव्य प्रतिबद्ध' और 'भाव प्रतिबद्ध' के भेद से इसके दो रूप मिलते हैं। दीवार आदि के व्यवधान से युक्त आवास द्रव्य प्रतिबद्ध कहलाता है। भाव प्रतिबद्ध से तात्पर्य उस आवास से है, जिससे भावों में विकृति आना, मानसिक विचलन आशंकित हो। चूर्णिकार ने इसके चार भेद किए हैं : 1.जहां गृहवासी स्त्री-पुरुषों का एवं साधु का प्रस्रवण स्थान एक हो। 2. जहां घर के लोग एवं साधुओं के बैठने का स्थान एक हो। 3. जहां स्त्रियों का रूप सौन्दर्य आदि दृष्टिगोचर होता हो। 4. जहां स्त्री की भाषा, आभरणों की झंकार तथा काम विलासान्वित गोप्य शब्दादि सुनाई पड़ते हों।" इसी सूत्र में प्रतिबद्ध मार्ग युक्त उपाश्रय अर्थात् ऐसा उपाश्रय जिसका मार्ग गृहस्थ के घर के बीच से होकर हो तो साधुओं के लिए वहां रहना अविहित बताया गया है। " 2.1.1 विविक्तशयनासन के उद्देश्य - आगमों में अनेक स्थल पर विविक्तशयनासन के उद्देश्य का विवेचन निम्नलिखित रूप में मिलता है 122
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy