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________________ (1) वेश्याओं से सम्पर्क वर्जन - ब्रह्मचर्य के लिए वेश्याओं का सम्पर्क बड़ा दुर्गति कारक होता है। इसलिए ब्रह्मचर्य की साधना करने वालों के लिए वेश्याओं से संग परिचय करना निषिद्ध माना गया है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में वेश्याओं के अड्डे में निवास का वर्जन किया गया है। दसवैकालिक सूत्र में यहाँ तक कहा गया है कि ब्रह्मचारी को वेश्या बाड़े के समीप भी नहीं जाना चाहिए। इस ग्रंथ में इस निषेध के पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण प्रस्तुत किया है। वेश्याएं विभिन्न उपायों से लोगों को आकर्षित करने का प्रयास करती है। इससे ब्रह्मचारी का मन साधना मार्ग से विचलित हो सकता है। विचलित मन वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य साधना में और इसके फल में संदेह होने लगता है। वह सोचने लगता है- 'अब्रह्मचर्य में तो प्रत्यक्ष सुख है पर ब्रह्मचर्य से मोक्ष या स्वर्ग का सुख है या नहीं? मैं ब्रह्मचर्य का पालन कर कहीं ठगा तो नहीं जा रहा?' इस प्रकार संकल्प विकल्प में पड़ा ब्रह्मचारी साधना मार्ग से पतित हो सकता है। साधक का ब्रह्मचर्य भले ही नष्ट न हो, उसका चित्त असमाधिस्थ तो हो ही सकता है। इस निषेध का दूसरा कारण यह भी है कि जो ब्रह्मचारी बार-बार वेश्याओं से सम्पर्क करता है या वेश्या बाड़े की तरफ जाता है तो लोगों के मन में उसके चरित्र पर सन्देह होने लगता है क्योंकि सभ्य समाज में इसे अच्छा नहीं माना जाता है। (2) बुरी संगत का वर्जन - व्यक्ति के चिंतन एवं चरित्र पर उसकी संगति का बहुत गहरा असर पड़ता है। आचारांग सूत्र के अनुसार संसार में विभिन्न प्रकार के दार्शनिक मान्यताओं के लोग रहते हैं। कुछ दार्शनिकों के विचार मिथ्यात्व, कषाय और विषयों से अभिभूत होते हैं। वैसे लोगों के सम्पर्क से साधक उनके विचारों से प्रभावित होकर विषयों में लिप्त हो सकता है। इसलिए यहाँ इस प्रकार की कुसंगतियों से बचाव का सुझाव दिया गया है।" सूत्रकृतांग सूत्र में काम-भोग में गृद्ध कुछ अनार्यों द्वारा स्त्री-परिभोग को निर्दोष स्थापित करने का कुतर्क दिया गया है। वे कहते हैं (1) स्त्री-परिभोग गांठ या फोड़े को दबाकर मवाद निकालने जैसा निर्दोष है। (2) स्त्री परिभोग मेंढे के जल पीने की क्रिया की तरह निर्दोष है। इसमें दूसरे को पीड़ा नहीं होती और स्वयं को भी सुख की अनुभूति होती है। 23 (3) जैसे कपिंजल पक्षिणी आकाश से नीची उड़ान भरकर धीमे से चोंच में जल पी लेती है वैसे ही स्त्री परिभोग निर्दोष है। 24 ऐसे तर्कों को सुनकर नए साधकों के मन में अनुकूल उपसर्ग उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिए सूत्रकृतांग सूत्र में कुशील संसर्ग का वर्जन ब्रह्मचर्य सुरक्षा की दृष्टि से किया गया है। सूत्रकृतांग के नियुक्तिकार ने संसर्ग का अर्थ इस प्रकार किया है। कुशील के साथ आना-जाना, उन्हें देना, उनसे लेना, उनके साथ प्रवृत्ति करना। 123
SR No.009963
Book TitleJain Vangmay me Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinodkumar Muni
PublisherVinodkumar Muni
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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