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________________ ऐसे स्व-पर घातक वक्ता के प्रति आ. विद्यासागर विरचित तोता क्यों रोता ? इस कवितासंग्रह की 'गिरगिट' यह कविता अतिशय समर्पक प्रभावना का उपाय जिनधर्म की प्रभावना का एक उपाय जिनधर्म के तत्त्व और उनका वास्तविक स्वरूप जन-जन तक पहुँचाना यह है । जिनवाणी का अभ्यास एवं प्रसार सभी के लिए अत्यन्त कल्याणकारी है । इसलिए समाज के विद्वानों, कार्यकर्ताओं तथा दानियों को ऐसा कार्य करना चाहिए, जिससे अल्प अथवा उचित मूल्य में यथार्थ तथा मनन करने योग्य साहित्य का प्रकाशन सम्भव हो सके तथा वह सर्वत्र सुलभता से उपलब्ध हो सके। अतः हे भव्यात्मन् ! प्रवचन भक्ति करना सीखो, प्रवचन नहीं । (श्रुताराधना (२००८) - पृष्ठ ६६) आध्यात्मिक-सैद्धान्तिक प्रवचन करने के बावजूद भी संघम को ग्रहण नहीं करता (उसका पालन नहीं करता) वही संसार का सबसे बड़ा महामूर्ख । (अमृत कलश - पृष्ठ १६१-१६२) आ. विभवसागर भी गुरुमंत्र देते हैं - यदि आप प्रतिष्ठा चाहते हैं तो धनवान नहीं धर्मवान बनिये । (गुरुमंत्र - पृष्ठ २३) गिरगिट वास्तविक देखा जाये तो आचरण की पवित्रता ही विचारों की पवित्रता है। मलिन जीवन दूसरों को क्या प्रकाश देगा? यह बात निर्विवाद सत्य है कि स्वयं के जीवन में त्याग और सादगी उतारना ही दूसरों को त्याग और सादगी का उपदेश देना है। जिसके अपने जीवन में ये बातें नहीं हैं ऐसा चारित्रहीन व्यक्ति प्रभावना करने के लिए अपात्र है। आ. वीरसागर महाराज के शब्दों में - पण्डिताई माथे चढ़ी, पूर्व जन्म का पाप । औरों को उपदेश दे, कोरे रह गए आप ।। (आर्यिका इन्दमती अभिनन्दन ग्रन्थ - पृष्ठ ३/५०) प्रसिद्धि के व्यामोह से सन्मार्ग को भूलकर तथा आकर्षक शब्दों का मायाजाल फैलाकर अज्ञानी लोगों में चकाचौंध उत्पन्न करने में लगे हए ...कड़वे सच जिस वक्ता में धन-कंचन की आस और पाद-पूजन की प्यास जीवित है, वह जनता का जमघट देख अवसरवादी बनता है। आगम के भाल पर घूघट लाता है, कथन का ढंग बदल देता है, जैसे झट से अपना रंग बदल लेता है गिरगिट । (कवितासंग्रह - तोता क्यों रोता?) इसलिए नीतिकार कहते हैं - बहगुणविजाणिलयो असुत्तभासी तहावि मुत्तव्यो । जह वरमणिजुत्तो वि ह विग्घयरो विसहरो लोए ।। अर्थ - जैसे उत्कृष्ट मणिसहित भी सर्प लोक में विघ्न ही करने वाला है, वैसे ही वक्तृत्वशैली, मनोज्ञता आदि गुण और बहुत ज्ञान का स्थान होने पर भी शाख विरुद्ध भाषण करने वाला वक्ता भी त्याज्य ही है ।*य इसलिए अहपाइ में कहा है - तेवि य भणामिहं जे सयलकलासीलसंजमगणेहिं । बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ॥ कड़वे सच ....................... १३४ --
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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