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________________ प्रभावना शुभ दीक्षा लेकर बहुदोषपूर्ण क्रोध, मान, माया, लोभसे आरम्भ और परिग्रहसे सम्बन्ध नहीं रखूगा । (भगवती आराधना (टीका)-१८२८, पृष्ठ ८१६) इस संकल्प को भूल कर जो साधु बाह्य प्रपंचो में संलग्न हैं वे लोकोत्तर (मुनि) पद को प्राप्त करके भी लौकिक रूप हैं। स्वपद प्राप्ति का एकमात्र भेष जिनमुद्रा है। उसे प्राप्त कर नेता-अभिनेताओं के तुल्य व उनमें ही नहीं लगाना चाहिए । (स्वानुभव तरंगिणी - पृष्ठ ४०) __ कहा भी है - विज्ञापन वह करते हैं जिन्हें अपनी साधना पर विश्वास नहीं होता है । (अमृत कलश - पृष्ठ १७८) ऐसे प्रचारक व्यक्ति से कभी धर्म की प्रभावना नहीं हो सकती । प्रभावक वही होता है, जो स्वयं धर्म से प्रभावित हो । (पुरुषार्थ देशना - पृष्ठ १०५) धर्म दिखावा, आडंबर, चमत्कार में नहीं है, वह आत्मा में जन्मे विश्वास में है और कहीं नहीं । (विद्याधर से विद्यासागर - पृष्ठ १/११५) इसलिए धर्म की प्रभावना शास्त्रोक्त चर्या करने से ही होती है. न कि पत्रिकाएँ, फ्लेक्स, सर्वधर्मसंमेलन, सड़कों पर प्रवचन आदि बड़े-बड़े आडम्बर करके विशेष खर्च करने से । भावना द्वात्रिंशतिका (सामायिक पाठ) में कहा है - न संस्तरो भद्र ! समाधिसाधनं न लोकपूजा न च संघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम् ।।२३।। अर्थात्- संस्तर, पूजा, संघ-सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन । अतः ध्यान रखना चाहिए कि प्रतिष्ठा-प्रसिद्धि से साधु की पहचान नहीं हुआ करती । जो व्यक्ति बाह्य प्रभावना मात्र को देखकर प्रभावित हो जाते हैं वे अभी व्यक्ति की परीक्षा से अनभिज्ञ हैं । अभी उन्हें अध्ययन करने की आवश्यकता है। (स्वानुभव तरंगिणी - पृष्ठ ६०) प्रभावना का विरोध नहीं है, किन्तु प्रभावना के नाम पर त्याग और अपरिग्रह के सिदान्तों की बलि चढ़ाने को विरोध है । सनातन जैन धर्म कड़वे सच ... -१३१ की वास्तविक प्रभावना परिग्रह के त्याग की पूजा से ही हो सकती है, लौकिक हानि-लाभ का खाता देखकर व्रतों के प्रति अश्रद्ध और मूढ़ताग्रस्त जनों के साथ समझौते करके नहीं । सिद्धान्त में समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होती। आ. पुष्पदन्तसागर उवाच - सत्य अकेला होता है इसलिए सत्य के संघठन नहीं होते। झूठ के संघठन होते हैं, इसलिए वह भीड़ के साथ रहता हैं । सत्य बहुमत की अपेक्षा नहीं रखता, आचरण और अनुभूती की अपेक्षा रखता है । (अमृत कलश - पृष्ठ २०१) तथापि सम्प्रति में कतिपय विद्वान् विपरीत आचरण कर रहे हैं । वे कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं । शायद उनकी ऐसी मान्यता हैं कि शास्त्र हमारे लिए नहीं, दूसरों के लिए हैं । (प्रश्न आज के - पृष्ठ ४३) शब्द ही नहीं चारित्र भी बोलता है। इसलिए कोजागिरी पूनम, नववर्षदिन, होली आदि मनाना, आनन्दयात्रा, प्रश्नमंच, कविसंमेलन, गरबा, भक्तों से हास्यालाप, व्यापारिक प्रतिष्ठानों तथा मनोरंजन के स्थानों को भेंट देना, व्यापारिक-सांसारिक विषयों पर चर्चा, मंत्र-तंत्र-यंत्र, वास्तुशास्त्र, मंदिर के बजाय सडकों पर प्रवचन करना, प्रवचन के नाम पर जैनेतरों की कहानियाँ बोलना आदि दुष्कर्मों से लोग जोड़ने के इच्छुक साधुवेषधारियों के लिये मुनि नमिसागर महाराज का वक्तव्य चिन्तनीय हैं । उन्होंने कहा था - “जो स्वयं धर्म से पतित होकर तथा उसे (अर्थात् धर्म को) दूर फेंक कर दूसरे के कल्याण की बात सोचते हैं, वे भूल में हैं । स्वयं धर्म पर आरूढ़ होकर ही जिनधर्म की प्रभावना हो सकती है।" (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ ५२२) सम्यग्दर्शन के शेष सात अंगों को भूलकर केवल प्रभावना की ही टिमकी बजाने के इच्छुक गृहस्थों को भी इससे बोध लेकर सन्मार्ग पर चलते हुए सच्ची स्व-पर प्रभावना करनी चाहिए । क्योंकि - सत्य की प्रभावना तभी होगी, जब तुम स्वयं अपने जीवन को सत्यमय बनाओगे | चाहे तुम अकेले ही क्यों न रह जाओ, जनता सत्य का चुनाव अपने आप कर लेगी । (समग्र खण्ड ४ (प्रवचनामृत) - पृष्ठ ५१) ...- कड़वे सच ।
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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