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________________ (भावपाहुड-१५५) अर्थात् – मैं उन्हीं को सत्पुरुष अथवा मुनि कहता हूँ जो शील संयम तथा गुणोंके द्वारा परिपूर्ण हैं । जो (परिग्रह, अधःकर्म, प्रसिद्धि की इच्छा, सुखशीलता आदि) अनेक दोषोंका स्थान है वह तो श्रावक के भी समान नहीं है । (पृष्ठ ५४९) इतना ही कहना है कि.... अपने जीवन को आगमनिर्दिष्ट मार्ग पर स्थापित करने से ही मुनिराज का जीवन निर्मल बन जाता है । परन्तु भीड़ की मनोवृत्ति बड़ी विचित्र होती है । वह तो जहाँ और जिधर मुड़ गई सो मुड़ गई। सूक्ष्म सत्य की बात तो बहत दूर, भीड़ स्थूल तथ्यों के तह में भी नहीं जाती। यही कारण है कि वह अक्सर प्रचार का शिकार हो जाती है। प्रचार से सहजतः प्रभावित होने से उसे यह अहसास नहीं होता है कि वह जिसे शरण समझ रही है वहाँ शरण के नाम पर एक धोका है। यह पूर्ण सत्य है कि जैन दर्शन अपनी विभूति (धन-संपत्ति) के कारण जगत्वन्द्य नहीं हैं, अपितु निर्दोष संयम और चारित्र के माध्यम से जगत्वन्द्य है । आडम्बरों से कभी श्रमण संस्कृति की रक्षा (और प्रभावना) हुई है, न होगी। यह धारणा गलत है कि वर्तमान में चरणानयोग में मृदुता लानी चाहिये। उन शिथिलाचारियों से इतना ही कहना है कि यदि आपका सामर्थ्य नहीं है तो श्रद्धा रखे, परन्तु आगम में विकार को स्थान न दे, यही आपकी श्रमण संस्कृति के प्रति उदारता होगी । (स्वानुभव तरंगिणी - पृष्ठ ११) जगत पूज्य जिनमुद्रा को धारण करके भी जो आत्मसाधना से परे होकर यश:कीर्ति, पूजा, सम्मान के पीछे दौड रहा है, भोग-भावना में जी रहा है, वह साधु होकर भी संसारमार्गी है, उसका कल्याण संभव नहीं है | भो प्रज्ञ! त्रिलोक-वन्दनीय मुनिलिंग को अपमानित मत कर । यदि परिणामों में कालूष्य है, शरीर से पापक्रिया करने की भावना रखता है व शरीर से कुचेष्टाएँ भी करता है, तो हे आत्मन् ! जिनभेष छोड़कर अन्य भेष धारण कर अन्य क्रियाएं कर । यह सब अरहन्त-भेष में शोभा नहीं देता । अरहन्त मुद्रा को वन्दनीय ही रहने दे । (स्वानुभव तरंगिणी - पृष्ठ १३) अमृत कलश में कहा भी है - साधुत्व का संबंध लोकेषणापदेषणा से नहीं स्व से (आत्मकल्याण से) है । (पृष्ठ १९४) इस मार्ग में साधनों की आवश्यकता नहीं है, साधना की आवश्यकता है । (प्रश्न आज के - पृष्ठ १५) यह निश्चित है कि यदि मुनिपद की रक्षा करनी है तो परिग्रह और लौकिकता को छोड़ना ही पड़ेगा। क्योंकि जैन दर्शन, श्रमण संस्कृति की पहचान आडम्बरों से नहीं, लोक-सभाओं में भाषणों से नहीं, अपितु आत्मसाधना, अध्यात्मचर्या, स्याद्वाद, अनेकान्त, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैसे निर्मल सिद्धान्तों के अनुसार चलने वाले महापुरुषों के माध्यम से होती है । भीड़ तो मनोरंजन के उद्देश्य से एकत्रित होती है । श्रद्धावन्त भीड़ को देखकर नहीं आते; वे चारित्र, त्याग, तपस्या, साधना, आत्माराधना को देखकर ही आते हैं । ... यथार्थ है, जिसे श्रद्धेय की दृष्टि से देखने जा रहे हैं हम, वह हमारी श्रद्धा का पात्र भी है या नहीं, इस बात का ध्यान तो रखना ही चाहिए। (स्वानुभव तरंगिणी - पृष्ठ ५२) अन्यथा कल कही ऐसा न कहना पड़े - फूटी आँख विवेक की, लखे न संत-असंत । साथ में भीड़ अरु संग, उसका नाम महंत ।। दीक्षा लेने से दो बाते संभव हैं - शास्त्रानुकूल आचरण करनेसे आत्म कल्याण होकर सद्गति प्राप्त होगी; अन्यथा शास्त्रविरुद्ध मनगढंत कल्पनाएँ करते हुए विपरीत आचरण करने से दुर्गति का भाजन बनना पड़ेगा। इतश्चिन्तामणिर्दिव्य इत: पिण्याकखण्डकम् । दीक्षया चेदुभे लभ्ये, क्वाद्रियन्तां विवेकिनः ॥ अहो विवेकी जनो । आप क्या चाहते हो ? एक ओर श्रेष्ठ चिन्तामणि रत्न के समान स्वर्ग और मोक्ष हैं; और दूसरी ओर जिसमें से । कड़वे सच . . . . . . . . . .-१३५ - ... कड़वे सच ... . . . . . . . . . . . . . . . . . - १३६ -
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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